Friday, April 19, 2024
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स्त्री शिक्षा की सूत्रधार सावित्री बाई फुले की जयंती मनाई गई

नई दिल्ली। देश भर की महिलाओं के लिए शिक्षा के लिए संघर्ष करने और पहली बालिका पाठशाला खोलने वाली सावित्री बाई फुले की आज जयंती मनाई गई। स्त्री शिक्षा के लिए सावित्री बाई को समाज से लड़ना पड़ा।


दरअसल 19वीं सदी के दौर में भारतीय महिलाओं की स्थिति बड़ी दयनीय थीं। जहां एक ओर महिलाएं पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही थीं तो दूसरी ओर समाज की रूढ़िवादी सोच के कारण तरह.तरह की यातनाएं व अत्याचार सहने को विवश थीं। हालात इतने बदतर थे कि घर की देहरी लांघकर महिलाओं के लिए सिर से घूंघट उठाकर बात करना भी आसान नहीं था। लंबे समय तक दोहरी मार से घायल हो चुकी महिलाओं का आत्मगौरव और स्वाभिमान पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था।

समाज के द्वारा उनके साथ किये जा रहे गलत बर्ताव को वे अपनी किस्मत मान चुकी थीं। इन विषम हालातों में दलित महिलाएं तो अस्पृश्यता के कारण नरक का जीवन भुगत रही थीं। ऐसे विकट समय में सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक बनकर महिलाओं को सामाजिक शोषण से मुक्त करने व उनके समान शिक्षा व अवसरों के लिए पुरजोर प्रयास किया। 

गौरतलब है कि देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवयित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के पुणे सतारा मार्ग पर स्थित नैगांव में एक कृषक परिवार में हुआ था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ। सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने वर्ष 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की। ज्योतिराव ने अपनी पत्नी को घर पर ही पढ़ाया और एक शिक्षिका के तौर पर शिक्षित किया।

उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किये। उन्होंने शूद्र, अति शूद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने के साथ घर की देहरी लांघकर बच्चों को पढ़ाने जाकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन का उदय किया। 

इसके अलावा सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी।

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महात्मा ज्योतिराव फुले की मुत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया। लेकिन 1897 में प्लेग की भयंकर महामारी फैल गई। पुणे के कई लोग रोज इस बीमारी से मरने लगे। तब सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत को अवकाश लेकर आने को कहा और उन्होंने उसकी मदद से एक अस्पताल खुलवाया। इस नाजुक घड़ी में सावित्रीबाई स्वयं बीमारों के पास जाती और उन्हें इलाज के लिए अपने साथ अस्पताल लेकर आती। यह जानते हुए भी यह एक संक्रामक बीमारी है फिर भी उन्होंने बीमारों की देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखी। एक दिन जैसे ही उन्हें पता चला कि मुंडवा गांव में महारों की बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकवाड का पुत्र प्लेग से पीड़ित हुआ है तो वह वहां गई और बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर अस्पताल लेकर आयी। इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गई और 10 मार्च 1897 को रात को 9 बजे उनकी सांसें थम गईं।

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