प्रोफेसर राजकुमार जैन
रात 1 बजकर 5 मिनट पर विलिंगडन हॉस्पिटल दिल्ली में 12 अक्टूबर 1967 को अंतिम सांस लेने वाले डॉक्टर लोहिया की कल पुण्यतिथि है।
बरतानिया हुकूमत, पुर्तगाली जारशाही, नेपाली राणा शाही की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने तथा आजाद हिंदुस्तान में गुरबत, नागरिक आजादी, जाति, मजहब, औरत मर्द की गैर बराबरी के सवाल पर संसद से सड़क तक संघर्ष करते हुए 11 बार विदेशियों तथा 13 बार अपने मुल्क में आजादी के बाद कैद किए गए।
बर्लिन (जर्मनी) की हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी की डिग्री हासिल करने के बाद आजादी की जंग में शामिल हो गए। उनके ज्ञान, त्याग, संघर्ष की अनेकों लोमहर्षक गाथाएं, मौलिक चिंतन का विपुल साहित्य अंग्रेजी हिंदी में प्रकाशित है। 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 27 साल के लोहिया को 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनको कांग्रेस पार्टी के विदेश विभाग का सचिव बनाकर इलाहाबाद में आनंद भवन में रहकर काम करने का निर्देश दिया। डॉ लोहिया ने वहां रहकर विदेश नीति का आधारभूत सिद्धांत बनाया। वही बाद में हिंदुस्तान की विदेश नीति का मूल आधार बना। विदेश नीति पर भी डॉक्टर लोहिया की कितनी गहरी पकड़ थी, उसकी मिसाल जुलाई 1950 में लिखे उनके लेख को पढ़ने से मिलती है।
“पश्चिम एशिया और पूर्वी अफ्रीका में तीसरा खेमा लकवा- ग्रस्त हुआ पड़ा है, आंतरिक झगड़ों के कारण जैसे इस्राइल अरब संघर्ष।
मैंने इस्रायल के प्रधानमंत्री बेन गुरियन और अरब लीग के नेताओं की मीटिंग कराने की कोशिश की थी। इस्राइल के प्रधानमंत्री ने मुझसे कहा था कि वे अरब नेताओं से मिलने के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं। मुझे लगा था की सीमाओं की गारंटी तो प्रभावी की ही जा सकती है, हालांकि फिलिस्तीन के अरब शरणार्थियों की समस्या को हल करने में बहुत कठिनाई होगी। किसी भी स्थिति में इस्राइल के लिए यह अच्छा होगा कि वह नज़रेथ और और अन्य स्थानों के अरबो को न केवल समान नागरिकता की औपचारिक सुविधा दें बल्कि उन्हें सम्मानजनक जीवन की वह तमाम सुविधाएं भी दे जो यहूदियों को दी जा रही है। मैं यह समझ नहीं पाया हूं की अरबो और यहूदियों के लिए सामूहिक बस्तियां बनाने की पहल क्यों नहीं की जा सकती।
इस बीच मिस्र में चुनाव हुए हैं और मिलनसार नहास पाशा वहां प्रधानमंत्री बने हैं। मैंने जब 6 महीने पहले उनसे बात की थी तो वह तीसरे खेमे के बारे में आशान्वित नहीं दिखे थे लेकिन अगर भारत सकारात्मक नीति अपनांए तो उनका मन भी बदल सकता है। जैसे भी हो नहास पाशा और आजाम पाशा की बेन गुरियन से मीटिंग होनी चाहिए। इसका कुछ तो फायदा होगा, भले ही वह इस्राइल अरब युद्ध को न रोक पाए। भले ही कितने युद्ध हो जाएं लेकिन अंततः समझोता तो होना ही चाहिए इस तरह की बैठके इसमें सहायक ही होती है।
एक न एक दिन इस्राइल और अरब दुनिया के बीच कुछ संघात्मक व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी। अगर दुनिया में कहीं अंतिम व्यक्ति तक युद्ध करने जैसी भावना मुझे दिखी तो वह इस्राइल में ही दिखी। जब मैंने एक इस्रायली उत्साही नौजवान से कहा की 8 करोड़ अरब शत्रुओं के सामने 20 लाख यहूदियों के टिके रहने की कोई संभावना नहीं है और किसी दिन अरर्बो के पास भी यहूदियों जितने हथियार आ जाएंगे तो उसने अपने शांत उत्तर से मुझे डरा दिया। उसने कहा कि उनके लिए जाने की कोई जगह नहीं है। आश्चर्य की बात है कि इस देश में जहां हर लड़की मशीनगन चला सकती है, महात्मा गांधी की आत्मकथा हर उस नौजवान ने पढी है जिससे मैं मिला। गहराई -गहराई को आमंत्रित करती है चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक।
इस्राइल एशियाई देश है। उसके पास इतने मानव संसाधन और प्रतिभाएं हैं कि किसी और देश मे इतनी नहीं होगी। वह नए ढंग के जीवन के प्रयोग कर रहा है विशेषकर कृषि में। शांति और पुनर्निर्माण के कार्य में इस्रायल की साझेदारी सारे एशिया को, जिसमें अरब भी शामिल है, लाभान्वित करेगी। भारत सरकार को इस्राइल को मान्यता देने में देरी नहीं करनी चाहिए। मैं यही बात मिस्र की सरकार से भी कहना चाहता हूं। मैं यह बताने की जरूरत नहीं समझता कि मैंने मिस्र मे अपने को ज्यादा घर जैसा सहज महसूस किया बनिस्पत इस्रायल के लोगों के बीच क्योंकि काहिरा में गंदगी, शोर और अनुशासनहीनता कानपुर की तरह ही है। यह दुःखों और उम्मीदों का रिश्ता और संभवत: है दोनों देशों की संस्कृतियों का एक जैसा होना भी हमें एक दूसरे के करीब लाता है।—- आदमी के भाग्य का निर्णय गुटों का अस्थाई युद्ध नहीं, परिरक्षण और निर्माण के बीच का यह युद्ध करेगा। जब यूरोप और अमेरिका को यह बात समझ में आ जाएगी कि एशिया- अफ्रीका में निर्माण के बिना परिरक्षण असंभव है तभी विश्व- मन शक्तिशाली बनेगा और विश्व- सरकार अस्तित्व में आएगी।
अंतिम समाधान तब भी बहुत दूर होगा। इसके लिए प्रौद्योगिकी तथा वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में क्रांतिकारी सोच और सभी राष्ट्रो के संसाधनों की साझेदारी की जरूरत होगी। इस दिशा में एक कदम के रूप में विश्व- विकास निगम और शांति तथा निर्माण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सेवा (ब्रिगेड) का विचार रखा गया है। विश्व केवल युद्धों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेडों के बारे में नहीं जानता है। क्या यह संभव नहीं है कि इस तरह के ब्रिगेड विभिन्न देशों में विकास कार्यों के लिए भी बने, प्रतीकात्मक कार्रवाई के रूप में नहीं बल्कि वास्तविक निर्माण के प्रयोजन से? अमरीकन दार्शनिक स्कॉट बुकानन और स्ट्रिंग फेलोबार इन विचारों पर काम कर रहे हैं। एच,एन, ब्रेल्सफोर्ड और उनकी पत्नी इबा मारिया ने कार्रवाई के कुछ ऐसे तरीकों पर जोर दिया है जिससे सभी देशों के लोग मिलकर टोलियो में पुनर्निर्माण का काम करें।”
स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा, महात्मा गांधी के इस कुजात शिष्य का कोई घर परिवार, जमीन जायदाद, धन दौलत, बैंक बैलेंस नहीं था। गर्मी सर्दी में पहनने वाले कपड़े उनको देने में अनुयायियों में होड लगती थी, सर्दी खत्म होने पर जिस इलाके के दौरे पर वह होते थे वहां के कार्यकर्ता उन कपड़ों को लेने पर फख्र महसूस करते थे। वे अपने को बंजारा तथा सफर मैना( सैपर्स एंड माइनर्स- जो आगे बढ़ती सेनाओ के लिए पहाड़ खोदकर सड़के आदि बनाते हैं) मानते थे। भिखारियो , लावारिसों के लिए दिल्ली में बनी हुई बिजली के चिता घर में बिना किसी कर्मकांड के उनको अंतिम विदाई दी गई।