प्रियंका आनंद
हमारे देश की परंपरा अन्य देशों की परंपराओं में से समरिद्ध मानी जाती है। यहां की भाषाए, खान-पान, वेशभूषा हमारे देश को दुसरे देशों से भिन्न करती है। खाने पीने, ठहरने सहने, वेश भूषा से परे हट कर एक और बात है जो कि हमारे देश को पश्चिम देशों से अलग करती है और वह है हमारे देश का पहनावा, जो कि हर राज्य में अलग – अलग होने के कारण भारत को और देशों से अलग करता है। पहनावे में एक पहनावा एसा भी है जो सबके मन को लुभाता है और वह महिलाओं की साडियां हैं।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/media-mobile-atulya-bharat-2018-8-7-t-17-12-44.jpeg)
ये भी पढें – 30 अप्रैल को ही समाप्त होगा कुंभ मेला- उत्तराखंड सरकार
पश्चिम बंगाल की तांत – पश्चिम बंगाल के रोशगुल्ले के अलावा वहां की तांत की साड़ी भी देश भर में काफि मशहुर है और साथ ही महिलाओं की पसंद भी मानी जाती है। यह कपास नामक कपड़े से बनाया जाती है। महिलाएं इसे दैनिक पोशाक के रूप में भी पहनना पसंद करती हैं। इसकी खासियत यह है कि इसका कपड़ा बहुत ही हल्का होता है, जिसके कारण यह पहनने में बहुत ही आसान होती है। इसका मोटा बॉडर्र और खुबसूरत प्रिंट महिलाओं की सुंदरता को बढ़ाने में काफी सहायक माना जाता है।
केरल की कसावु – जिसे सेतु साड़ी भी कहा जाता है, इसमें सफेद रंग के रेशमी कपड़े पर सुनहरे रंग के पतले या मोटे बॉडर्र से बुनाई की जाती है। पहले के समय में कसावु साड़ी पर सोने के आभूषणों से भी कारीगरी की जाती थी, जो महिलाओं की सुंदरता में चार चाँद लगाने में परयाप्त होती थी। वहीं, आज के दौर में तंगावु साडियां जो की कसावु का ही दुसरा नाम है , भारतीय महिलाओं को लुभाने में काफी सफल मानी जाती है।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/ball_handloom_white_saree_5-768x1024.jpg)
तमिलनाडु की कांजीवरम साड़ी – कांजीवरम साड़ी के कपड़े की बुनाई मलबरी के कपड़े से की जाती है। भारतीय त्यौहारों में कांचीवरम साड़ी को काफी पसंद किया जाता है। इसमें सोने और चांदी के तारों से बुनाई की जाती है, जो गुजरात में पाया जाता है। कांजीवरम साड़ी पर अलग-अलग तरह की कारीगरी की जाती है-सूरज, चॉद, भगवान की रक्षाती इत्यादि। उसके पल्लु और अगले भाग की भिन्नता कांजीवरम साड़ी के असली होने की पहचान बताती है। अगर कांजीवरम साड़ी को जलाया जाए और उसके जलने पर जो राख निकलती है तो वह कांजीवरम की असली पहचान करने में सहायक मानी जाती है। त्यौहारों में कांजीवरम साड़ी काफी लुभावनी मानी जाती है।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/maxresdefault-3-1024x576.jpg)
ओडिशा की बॉम्काई साड़ी– इस साड़ी का नाम गमजम जिले से बॉम्मी नामक गॉव पर पड़ा। सोनपुर में इन साडियों की बुनाई की जाती है इसलिए इस प्रकार की साडियों को सोनपुर साड़ी भी कहा जाता है। इन पर छोटे और बडे बुटे की कारीगरी की जाती है। बॉम साडी में कुम के काम से बुनाई की जाती है। त्यौहार हो या फिर कोई विशेष उत्सव बॉम साडि से महिलाओं के सौरेंद्रय को काफ़ी सरहाना मिलती हैं।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/5e88b647285d95594afe4e3d2d6815a0.jpg)
औरंगाबाद की पैठणी साडि – औरंगाबाद की पैठणी साडि को साडियों की रानी कहा जाता है। दरसल पैठणी औरंगाबाद के एक शहर पैठण से उतपन्न हुआ है। ये हाथ से बुनी हुई फाइन सिल्क है जो सबसे उत्तम प्रकार की साडि में से माना जाता है। इसके किनारे और पल्लु पर अपनी खास डिजाइन जैसै चौकोर और तिरछे आकार वाले तोता, मैना, कमल, हंस, नारियल, मोर आदि होते है। समय और पहनावे के चलते इसके रंग और पैट्रन में अंतर आ गया है लेकिन आज भी इसकी शान और म्रयार्दा बरकरार है।
ये भी पढें – टीका उत्सव को लेकर राहुल गांधी ने पीएम मोदी पर कसा तंज
बादंनी साडि – गुजरात से लेकर राजिस्थान और उत्तर प्रदेश के इलाको में पसंद की जाने वाली बादंनी साडि का नाम बंधन शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ होता है बंधन। इस खास प्रिट की शुरुआत गुजरात में खत्रियों ने की थी। इसकी डिजाइनिंग सुती, जॉज्रट और शिफॉन के कपडे पर किया जाता है। बांधनी को काफी लोग सालों की मेहनत से तैयार करते है। इसका खास प्रिंट चुनरी, औठनी और लहंगा में काफी पसंद किया जाता है। शादियों में दुल्हन इस प्रकार के लहंगे या साडि को काफी पसंद करती है।
मुंगा साडि – असम मे बनी मुंगा साडि सिल्क कि साडि जितनी भारत में पसंद की जाती है उतनी ही विदेशे में भी सराही जाती है। इसे बनाने के लिए जिस रेश्मि किडे का इस्तेमाल किया जाता है उसे मारा नही जाता। उस किडे का वैज्ञानिक नाम Antheraea Assamensis है। इसे जितने पुराने किडे से बनाया जाता है इसकी चमक उतनी ही ज्यादा होती है। इन साडियों का रख रखाव भी काफी आसान होता है और इनको धोने में भी कोइ परेशानी नही होती। इसे हाथ से बनाया जाता है इसलिए इसको बनाने में 15 से 45 दिनों का समय लगता है।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/jacquard-silk-resham-embroidery-bandhani-saree-500x500-1.jpg)
बनारसी साडि – सभी प्रकार की साडियों में से भारतीय महिलाओं की पसंद बनारसी साडी भी काफि है। बनारस की बनारसी साड़ी पर सोने और चॉदी के तारों से कारीगरी की जाती है। वैसै तो बाजार में असली बनारसी साडि के नाम पर बहुत बार लोंगों को धोखा भी दिया जाता है लेकिन जिन लोगों को असली बनारसी साडि की पहचान है वही इसको पहचान सकते हैं। असली बनारसी साडि की यह पहचान है कि अगर उसे जलाया जाता है तो उसमें से धीमी धीमी महक आने लगती है। पुराने ज़माने में बनारसी साडि़ पर असली सोने और चॉदी के तारों से काम किया जाता था और आज भी फिल्म जगत की हिरोंइने असली सोने और चॉदी के तारों से बनी हुई बनारसी साडियॉ ही पहनना पसंद करती है। सोने और चॉदी के काम से बनी बनारसी साडि का वजन कपडे के मुकाबले बहुत ज्यादा होता है।
मध्य प्रदेश की चंदेरी साडि – मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में स्थित चंदेरी नामक स्थान यहाँ की अद्भुत कशीदाकारी और सुन्दर प्रिंटेड साडियों के लिए विश्वभर में विख्यात है। चंदेरी का गौरवली इतिहास, यहाँ की काशिवकारी की भांति ही रोमांचक और अद्भुत रही है। चंदेरी का वर्णन एरल ग्रंथों में भी किया गया है। चंदेरी कपडा जिससे चंदेरी की डिजाइनर साडियॉ बनाइ जाती है। चंदेरी साडियों में तीन तरह के मशहुर और शुद्ध कपडा यानी प्योर सिल्क, चंदेरी कॉटन और सिल्क कॉटन से बनाई जाती है। कोनराड साडि़ सबसे प्रसिदध साडियों में से एक है। इसने अपनी पारंपरिक सुदंरता को बनाए रखा है। यह विभिन्न अवसरों का बहुत व्यापक उपयोग है। एसी सभी प्रकार की साडियों पर आमतौर पर चेक या स्ट्राइप्स होता है। इस प्रकार की साडियों में ज़री के साथ अंतर-लॉक भी किया जाता है।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/maxresdefault-4-1024x576.jpg)
ये भी पढें – दिल्ली सरकार ने किया वीकेंड कर्फ्यू का ऐलान
लहरीया – राजस्थान की एक पारंपरिक टाई एंड डाई तकनीक है। इतिहासकारों की माने तो लहरीया का उल्लेख 15वीं सदी में मिलता है। सोलहवीं सदी में अवधी के कवि जायसी ने अपने काव्य में लहरिया को जगह दी थी। इसका इतिहास राजपुताना में राजाओं की पगडि पर किया जाता है। लहरीया सिर्फ एक कपडे पर उतारा डिजाइन या स्टाइल नही है बल्कि यह श्रद्धा, आस्था, प्रमे एवम खुशनुमा माहौल का भी प्रतीक माना जाता है।
पंजाब की फुलकारी – पंजाब का जिक्र चले और फुलकारी का नाम ना आए एसा हो नही सकता क्योंकि फुलकारी वर्क पंजाब का हिस्सा है। जिसकी शुरुआत बच्चे के जन्म से लेकर, शादियों और तीज त्यौहारों सभी प्रकार के कामों में की जाती है। मान्यतों के अनुसार फुलकारी की शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई थी और इसका अर्थ होता है फुलों की कारीगरी। पटियाला सलवार सुट और उनकी कारीगरी इस कला के बिना अधुरी है। यह ना केवल साडियों में अपितु जुती, दुपट्टे और भी अन्य सौन्द्रयीकरण चीजों में भी पाया जाता है।
![](https://apnipatrika.com/wp-content/uploads/2021/04/b18c31e6f9e53af31b2c5cc9351f8cf9.jpg)
नवाबों के शहर लखनऊ की चिकरकारी ने भी काफी लोकप्रियता हासिल करी है। मान्यताओं के मुताबिक चिकनकारी की शुरुआत नवाबों के समय में ही हो गई थी और तब से लेकर अब तक चली आ रही है। साडियों पर यह कला बहुत ही निखर कर आती है। चाहे बात एश्वर्या की हो या किसी और अभिनेत्री की या फिर किसी साधारण महिला की, चिकनकारी कला भारत में काफी लोकप्रिय है। अलग अलग रंगों की साडियों पर सफेद रंग की चिकनकारी बेहद सुन्दर लगती है और उसने काफी सराहना भी हासिल करी है।
देश और दुनिया की तमाम ख़बरों के लिए हमारा यूट्यूब चैनल अपनी पत्रिका टीवी (APTV Bharat) सब्सक्राइब करे ।
आप हमें Twitter , Facebook , औरInstagram पर भी फॉलो कर सकते है।