नेहा राठौर
अफगानिस्तान में तालिबान इन दिनों काफी चर्चा का विषय बना हुआ है। अफगान में तालिबान के कब्जा करने के बाद से पुरे देश की काया पलट गई है या ये भी कह सकते हैं कि देश की हवा का रुख अब तालिबानी शासन की ओर मुड गया है। भारत में और कई अन्य देशों में लोगों का कहना है कि इस बार तालिबान बदल कर वापस आया है।
इसके पीछे कितनी सच्चाई है ये अफगान से आने वाली खबरों से साफ पता लगा रहा है। पूरी दुनिया में तालिबान की क्रूरता का डंका बज रहा है। यहां तक की वहां की आवाम ने विद्रोह करना भी शुरू कर दिया है। आज अफगान पर तालिबान को कब्जा किए महीना होने जा रहा है। आखिर ये तालिबान है क्या, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई, इसे किसने बनाया? इस में बार-बार रूस और अमेरिका का नाम क्यों लिया जा रहा है। इनकी क्या भूमिका है? यह सब समझने के लिए हमें बिल्कुल शुरू में जाना होगा, जब अफगानिस्तान को ब्रिटेन से आजादी मिली थी।
अफगानिस्तान में तख्तापलट का दौर
19 अगस्त 1919 को ब्रिटेन ने अफगान को आजाद कर दिया था। पूरे देश आजादी के जश्न में डूबा हुआ था। ऐसे में बड़ा सवाल यह था कि आखिर सत्ता कौन संभालेगा। उस समय देश में शाह का बोलबाला था, इसलिए सत्ता की बागडोर जहीर शाह को सौंपी गई। वह अफगानिस्तान पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाले शासक बने। उसके बाद 17 जुलाई 1973 में उनके चचेरे भाई मोहम्मद दाऊद खान उनका तख्तापलट कर खुद अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बन बैठे।
सौर क्रांति (1978)
किसी से छीनी हुई सत्ता पर वह कितना ही राज कर पाते। उनकी एक गलती ने उनका राजनीतिक करियर खत्म कर दिया। उन्होंने 1977 में संविधान बनाया, जिसमें उन्होंने एकसंवैधानिक प्रणाली को लागू कर दिया, मतलब खुद ही राष्ट्रपति और खुद ही प्रधानमंत्री। इसके एक साल बाद यानी 1978 में अफगान की जनता ने उनकी इस प्रणाली के खिलाफ जमकर विरोध किया, जो सौर क्रांति कहलाई।
अफगान में रूस का पहला कदम
सौर क्रांति का नेतृत्व नूर मोहम्मद तारिकी ने किया, जिन्हें रूस का समर्थन प्राप्त था। इस क्रांति के बाद नूर मोहम्मद तारिकी ने सत्ता संभाली। सभी जानते है रूस एक कम्युनिस्ट देश है और उस समय रूस की सीमा अफगानिस्तान से लगती थी। यानी तारिकी का अफगान की सत्ता पर काबिज होना रूस के लिए एक लौटरी साबित हुआ। यानी हम कह सकते हैं कि जाने-अनजाने अफगानिस्तान में रूस का ही राज शुरू हो गया था। तारिकी ने आते ही देश में मॉर्डनिटी का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया। अफगानी बच्चियों के लिए स्कूल खुलवाया, महिलाओं को बुर्खा पहने से मुक्त कर दिया और बड़ी बात उन्होंने अपने राज में जमीन से जुड़े भी कई बड़े बदलाव किये। उनका माना था कि अगर किसी के पास ज्यादा जमीन है तो वो अपनी जमीन का कुछ हिस्सा किसी गरीब को दे दे। उनकी इस बात से कई अफगानी नाराज थे। उन्हें लगता था कि इन सबसे उनके धर्म का अपमान हो रहा है। वह इस्लाम के खिलाफ काम कर रहे हैं।
अमेरिका और रूस की तकरार
अफगान में तारिकी के खिलाफ भड़क रही चिंगारी को हवा दी अमेरिका ने। उन दिनों अमेरिका और रूस दोनों कट्टर दुश्मन थे, उनके बीच कोल्ड वॉर होती रहती थी, दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे। बस फिर क्या था, अफगानिस्तान से रूस को उखाड़ फेंकने के लिए अमेरिका ने चाले चलना शुरू कर दिया, और वहां भड़के लोगों को और भड़काना शुरू कर दिया। इन्हीं भड़के लोगों का संगठन मुजाहिद्दीन कहलाया। जिसका मतलब है (मज़हब के लिए लड़ने वाला)।
इतना ही नहीं अमेरिका ने अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हफीजुल्लाह अमीन से हाथ मिला लिया। जिसके बाद तारिकी को 1979 में परिवार सहित एक प्लेन क्रेस में उड़ा दिया गया और हफीजुल्लाह की सरकार आ गई। यानी अफगानिस्तान से रूस का पता कट गया। इससे से गुस्साये रूस ने 1979 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और हाफिजुल्लाह की सरकार को खत्म कर दिया। लेकिन रूस की सेना ज्यादा समय तक अफगानिस्तान में टिक नहीं पाई क्योंकि मुजाहिद्दिन उन्हें आगे बढ़ने ही नहीं देते थे। कहा जाता है कि मुजाहिद्दीन को अमेरिका फंडिंग किया करता था। उन्हें पाकिस्तान में ट्रेनिंग दी जाती थी, हथियार मुहैया कराए जाते थे। हालांकि अमेरिका हमेशा से इस बात से इंकार करते आया है और पाकिस्तान को सभी जानते है। ऐसे में उनके इलाके में उनके होते हुए किसी बाहरी का टीक पाना मुमकिन नहीं था।
तालिबान का उदय
रूस के जाते ही मुजाहिदीन संगठन के लोग आपस में ही लड़ने लगे। सब खुद को ही राजा समझने लगे थे। ऐसे में 1989 में अफगानिस्तान में गृह युद्ध छीड़ गया। इस गृह युद्ध में अफगानी छात्रों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उसी में सबसे आगे रहने वाले छात्र का नाम उमर था। जो तालिबान का संस्थापक बना। दबे शब्दों में कहा जाता है कि तालिबान को बनाने वाला कोई और नहीं बल्कि खुद अमेरिका ही है। उसके बाद से ही तालिबान एक बड़ा आतंकी संगठन बनकर उभरा। इससे भी अमेरिका को फायदा ही हुआ क्योंकि तालिबान ने रूस को अफगानिस्तान से खदेड़ दिया था। खबरें तो यह भी हैं कि इसलिए अमेरिका ने तालिबान को पाकिस्तान के जरिए हथियार मुहिया कराने शुरू किए। हालांकि पाकिस्तान और अमेरिका ने कभी इस बात को नहीं माना कि तालिबान और मुजाहिदीन जैसे संगठन को उन्होंने ही बनाया है।
अमेरिका और ओसामा बिन-लादेन
कहा जाता है कि रूस को सबक सिखाने के लिए अमेरिका ने ही ओसामा बिन लादेन को सऊदी अरब से अफगानिस्तान भेजा था। अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर इन दोनों के बीच ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका को ओसामा को मारना पड़ा। तो उस वक्त खबरे कुछ यू चली थी कि इराक और कुवैत की लड़ाई के दौरान अमेरिका ने इराक पर हमला करने के लिए साऊदी अरब के पवित्र स्थल मक्का-मदीना के ऊपर से अपने जहाजों को उड़ाया था। जिसका ओसामा ने विरोध किया था। अमेरिका इस बात से नाराज हो गया और उसने ओसामा को सऊदी अरब से उसे बाहर निकलवा दिया। जिसके बाद उसने 9/11 की घटना को अंजाम दिया। और फिर अमेरिका ने उसे मारने के लिए अफगानिस्तान में अपनी फौज उतार दी।
हालांकि ओसामा अफगानिस्तान से उस समय तक वहां से भाग कर पाकिस्तान पहुंच चुका था। लेकिन अमेरिका जानता था कि तालिबान ने ओसामा को शरण दी है। इसलिए अमेरिका तालिबान का दुश्मन बन गया। उस समय वहां पहले से ही अमेरिकी फौज तैनात जानकारी मिलते ही उसने और फौज को बुलाया और अफगानिस्तान में बमबारी शुरू कर कई जगहों को तबाह कर दिया।