देश

एक क्रांतिकारी, जिसने अपने कलम को बनाया विरोध का जरिया

By अपनी पत्रिका

January 05, 2021

आज का दिन / नेहा राठौड़

आज का दिन यानी 5 जनवरी 1880 एक स्वतंत्रता सेनानी से जुड़ा है, जिन्होंने विरोध के कलम को हथियार बना लिया था। वह क्रांतिकारी होने के साथ—साथ एक पत्रकार भी थे। वे हैं बारीन्द्र घोष, जिनका जन्म 5 जनवरी को 1880 को लंदन के नॉरवुड में हुआ था। वे बारिन घोष के नाम से भी लोकप्रिय है। बारीन्द्र घोष और भूपेंद्र दत्त वही दो लोग हैं, जिन्हें बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय दिया जाता है। भूपेंद्र दत्त स्वामी विवेकानंद के भाई थे। बारीन्द्र कुमार घोष और भूपेन्द्रनाथ दत्त के सहयोग से 1907 में कलकत्ता में ‘अनुशीलन समिति’ का गठन किया गया था, जिसका अहम उद्देश्य था- “खून के बदले खून।”

बारीन्द्र कुमार घोष बंगाल के एक क्रांतिकारी संगठन युगांतर के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उन्होंने कलकत्ता में पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। बाद में उन्होंने कोलकाता में एक आश्रम भी स्थापित किया और पत्रकारिता से सेवानिवृत्त हो गए।

उनके बड़े भाई का नाम अरबिंद घोष था। उन्होंने देवघर में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ बंगाल में सैन्य शिक्षा भी ली। बारीन्द्र अपने बड़े भाई अरबिंदो घोष से प्रभावित थे और उन्हीं की तरह वे भी क्रांतिकारी आंदोलन की तरफ आकर्षित थे। उन्होंने कुछ लोगों के साथ कोलकाता में एक क्रांतिकारी संगठन ‘मनिक्तुल्ला समूह’ बनाया। जिन्होंने कोलकाता में एक गुप्त जगह का गठन किया, जहां उन्होंने बम बनाने शुरू किया और कुछ हथियार और गोल – बारूद भी इकठ्ठा किया।

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1923 में उन्होंने पुद्दुचेरी में श्री अरबिंदो आश्रम की स्थापना की थी और उनके बड़े भाई अरबिंदो ने भी उन्हें बहुत प्रेरित किया। पत्रकारिता में उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिक ” द डॉन ऑफ इंडिया” की शुरुआत की और अपने उद्देश्य को पुरा करने के लिए उन्होनें एक बंगाली भाषा में साप्ताहिक पत्र “युगांतर” की भी शुरुआत की। 1950 में वह बंगाल दैनिक के संपादक भी बने।

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इससे पहले वह जेल भी गए थे, उस वक्त बारींद्र और उनके साथियों ने खुदीराम घोष और प्रफुल्लचंद चौकी को मारने की कोशिश की थी, जिसके बाद क्रांतिकारियों को ढूंढा जाने लगा और उसी बीच बारींद्र घोष और उनके साथियों को “अलीपुर बम केस” के चलते गिरफ्तार कर लिया गया। जिसके बाद उन्हें और उनके साथियों को जेल भेज दिया गया। पहले उन्हें तो उन्हें मृत्यु दंड़ की सजा सुनाई गई। लेकिन बाद में बारीन्द्र और उनके साथियों को उम्रकैद के लिए अंडमान निकोबार की भयावह सेल्युलर जेल भेज दिया गया। जहां उन्हें 1920 तक कैद में रहना पड़ा।

उन्होंने “द स्टेट्समैन” के सम्मानित परिवार की विधवा सैलजा दत्ता से शादी की। इन्हीं क्रांतिकारी गतिविधियों के बीच 79 साल की उम्र में 18 अप्रैल 1959 आखरी सांस ली। वह अपनी जिंदगी में अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग गतिविधियों में भी शामिल हुए।

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