कुड़ा चुननी वाली सुमन मोरे की जेनेवा तक का सफर

पुणे  सुमन मोरे की जिंदगी कूड़ा चुनने से लेकर मशहूर होने तक की एक दिलचस्प कहानी है। एक निरक्षर कूड़ा चुनने वाली, 50 वर्षीय मोरे कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थीं कि एक दिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जेनेवा में आयोजित कार्यक्रम में वह सबके ध्यान का केंद्र बनेंगी। करीब एक पखवाड़े पहले ही, विश्व भर से आए 2,000 से भी अधिक विशेषज्ञों ने पूरे ध्यान से और तवज्जो देकर सुमन मोरे को बोलते हुए सुना। सुमन मोरे ने अपने काम और उससे जुड़ी परेशानियों के बारे में ब्यौरे से बताया। उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें और उनके जैसे बाकी लोगों को समाज में अपने लिए स्वीकार्यता कायम करने में किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। पिछले 37 सालों से अपनी रोजी-रोटी जुटाने के लिए सुमन मोरे कचरा चुनने का काम करती आ रही हैं। सम्मेलन के अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए वह कहती हैं कि पहले उन्हें लगता था कि सिर्फ कचरा चुनने वालों को ही ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, लेकिन सम्मेलन में और लोगों से मिलकर उन्होंने जाना कि कई और पेशे के लोगों, जैसे नाई व बुनकरों और कई और लोगों को भी समाज न तो आसानी से स्वीकार करता है और न ही उनकी आवाज ही सुनी जाती है।
एनडीटीवी को दिए गए एक इंटरव्यू में सुमन मोरे ने कहा कि सम्मेलन में देश-विदेश से कई लोग आए थे। सम्मेलन में भाग लेने वाले लोगों की तादाद 2,000 से भी ज्यादा थी। वह कहती हैं वहां मौजूद सभी लोगों में से एक अकेली वह ही साड़ी में थीं। वह बेहद मासूमियत से कहती हैं कि सम्मेलन में उनके लिए सबसे मुश्किल काम वातानुकूलित कमरे में बैठना था क्योंकि उन्हें इसकी आदत नहीं है। वह बहुत सहजता से आगे बताती हैं कि सम्मेलन में हर किसी ने उनकी तारीफ की, और साथ-ही-साथ भारतीय संस्कृति को भी बहुत सराहा। वह बड़े जोश के साथ बताती हैं कि वहां आई कई महिलाओं ने उनकी साड़ियां भी पहनकर देखीं।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के 104 वें सत्र का आयोजन 1 जून से 13 जून के बीच जेनेवा में किया गया था। सुमन मोरे को सम्मेलन में वक्ता की हैसियत से आमंत्रित किया गया था। दुनियाभर के कई देशों से विशेषज्ञों और नेताओं को भी इस सम्मेलन में हिस्सेदारी के लिए बुलाया गया था। इन सभी लोगों ने सुमन मोरे को बोलते हुए सुना और सराहा। जिस व्यक्ति को अपनी जाति के कारण एक सफाई कर्मचारी की नौकरी भी मिलनी मुश्किल हो, और जिसे कचरा बीनते हुए भी परेशान किया जाता रहा हो उसके लिए इतनी तवज्जो मिलना बेहद नया अनुभव था। सुमन मोरे उस्मानाबाद जिले के कालंब गांव से ताल्लुक रखती हैं। उनके माता-पिता गांव में ही लोगों के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करते थे। एक बार गांव में सूखा आने पर काम मिलने के मौके मिलने बंद हो गए और सुमन मोरे व उनके पूरे परिवार को काम की तलाश में पुणे आना पड़ा। उनके पति पोटराज नाम के एक जनजातिय समूह से ताल्लुक रखते हैं। उनके पति की आमदनी इतनी भी नहीं थी कि परिवार के लोगों को दिन का भर पेट खाना भी हासिल हो सके।
सुमन मोरे ने जब अपने पति औऱ परिवार की मदद के लिए नौकरी करने की कोशिश की तो अपनी जाति के कारण उन्हें कहीं काम नहीं मिला। ऐसे में उनके पास कचरा चुनकर अपना और अपने परिवार का पेट भरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। दिन के नौ घंटे तक कचरा चुनने के बाद सुमन मोरे रोजाना के मामूली 30-40 रुपये ही कमा पाती थीं। 6 लोगों के परिवार के लिए यह रकम बेबद मामूली है। वह नहीं चाहती थीं कि उनके बच्चों का भविष्य भी उनके जैसा हो। उन्होंने अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा सुनिश्चित की। अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए परिवार को एक समय का खाना छोड़ना पड़ा। यहां तक कि उन्होंने और उनके पति ने दिन-रात काम भी किया। उनके 4 बच्चों में से एक दो मास्टर्स डिग्री के साथ एक पत्रकार हैं। उनकी दूसरी संतान सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उनका तीसरा बेटा बी.कॉम का छात्र है, जबकि उनकी बेटी की शादी हो चुकी है।
सुमन मोरे के बच्चे अच्छा काम कर रहे हैं और परिवार की आमदनी भी अच्छी है। यहां तक कि परिवार के पास पुणे में अपना एक घर भी है। लेकिन फिर भी यह परिवार गुलटेकड़ी में स्थित सुमन मोरे के पुराने घर में ही रह रहा है। यह घर पहले कच्चा था। हालांकि अब इसे पक्का कर दिया गया है और घर में दो कमरे भी बन गए हैं। सुमन मोरे की बहू श्वेता पुणे के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं। वह कहती हैं कि उनका पूरा परिवार, आई यानी सुमन मोरे से काम छोड़ देने के लिए कहता है क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी है, लेकिन वह कहती हैं कि उन्हें अपना काम करना पसंद है। श्वेता बताती हैं कि सुमन मोरे की पूरी कमाई झुग्गी के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में खर्च में जाता है। सुमन मोरे नियमित रूप से स्कूल जाकर इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का जायजा लेती हैं। सुमन मोरे पर न केवल उनके परिवार को गर्व है, बल्कि जेनेवा के उस सम्मेलन कक्ष में बैठे हर श्रोता को भी उनपर और उनकी उपलब्धि पर बेहद गर्व महसूस हुआ था। वहां बजी हर ताली शायद सीधे दिल को छूकर ही निकली थी।

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