Friday, October 11, 2024
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देबेंदनाथ टैगोर: ब्रह्मसमाज के प्रमुख सदस्य

नेहा राठौर (19 जनवरी)

आज के दिन यानी 19 जनवरी 1905 को बह्मसमाज के संस्थापक और शांतिनिकेतन की नींव डालने वाले देबेंद्रनाथ ठाकुर या कहे की देबेंद्रनाथ टैगोर का निधन हुआ था। देबेंद्रनाथ जी का जन्म 15 मई 1817 को द्वारकानाथ ठाकुर के घर कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। देबेंद्रनाथ ठाकुर नोबल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर के पिता थे। देबेन्द्रनाथ जी मुख्य रूप से धर्म सुधारक तथा शिक्षा प्रसार में रुचि तो लेते ही थे लेकिन इसके अलावा देश सुधार के अन्य कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे। देबेंद्रनाथ जी के अच्छे चरित्र और आध्यात्मिक ज्ञान के कारण देशवासियों ने उन्हें महार्षि की उपाधि दी थी।

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त्तवबोधिनी की शुरूआत

वे ब्रह्मसमाज के प्रमुख सदस्य थे, जिसका 1823 ई. में उन्होंने नेतृत्व किया था। इतना ही नहीं उन्होंने 1843 ई. में ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ भी प्रकाशित की थी, जिसकी मदद से उन्होंने देशवासियों को गहरे चिंतन हृदयगत भावों के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। इतना ही नहीं इस पत्रिका ने मातृभाषा के विकास, विज्ञान और धर्म शास्त्र के अध्ययन की जरूरत पर जोर दिया और उस समय होने वाले सामाजिक अंधविश्र्वासों और कुरीतियों का विरोध किया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले धर्मपरिवर्तन के विरूद्ध में कठोर संघर्ष भी छेड़ा। वे हिंदु धर्म में कुछ सुधार चाहते थे।

‘धीरे चलो’ नीति

देबेंद्रनाथ जी चाहते थे कि इस देश में रहने वाला हर निवासी, पाश्र्चात्य संस्कृति के गुणों को सिखें और उन्हें भारतीय परंपरा, संस्कृति और धर्म में समाहित करें। उन्हें समाज सुधार के लिए ‘धीरे चलो’ नीति का चयन किया था इसलिए केशवचन्द्र सेन और उग्र समाज सुधार के पक्षपाती ब्राह्मासमाजी दोनों में मतभेद हो गए थे। इसलिए उन दोनों ने अपनी- अपनी नई संस्था शुरू की। केशवचन्द्र सेन ने ‘नवविधान’ नाम से और उग्र समाज ने ‘साधारण ब्रह्म समाज’ से।

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शांतिनिकेतन बना विश्वभारती

देबेंद्रनाथ जी शिक्षा में भी उतनी ही रूचि रखते थे, जितनी धर्म और समाज सुधार के कार्यों में। उन्होंने बंगाल के अलग अलग भागों में शिक्षा के लिए संस्थाएं खोली। उन्होंने बोलपुर में एकांतवास के लिए 1863 ई. में 20 बीघा ज़मीन ख़रीदी और वहां गहरी आत्मिक शांति का अनुभव होने की वजह से उसका नाम शांतिनिकेतन रख दिया गया और 1886 में उन्हें एक ट्रस्ट बनाया दिया गया। 19 जनवरी 1905 में उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे रवींद्रनाथ टैगोर ने वहीं पर विश्वभारती की स्थापना की।

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