Thursday, May 2, 2024
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ग़फ़्फार ख़ान की एक ख़्वाहिश बनी 15 लोगों की मौत का कारण

आज का दिन

नेहा राठौर

यदि आप जानना चाहते हैं कि संस्कृति कितनी सभ्य है, तो देखो कि वे महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। यह उच्च विचार ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ान के व्यक्तित्व को दर्शाता है। ख़ान साहब समाज सुधारक के साथ-साथ एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे। ख़ान साहब का जन्म 6 फरवरी 1890 को शांतिपूर्ण और समृद्ध पश्तुन परिवार में, ब्रिटिश भारत की पेशावर घाटी के उत्मंजाई में हुआ था। उनके माता पिता ने उनका नाम बच्चा खान रखा था। खान की आखिरी इच्छा थी कि उनके मरने के बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान के जलालाबाद में उनके घर पर दफनाया जाए, उनकी यह ख़्वाहिश 15 लोगों की मौत का कारण बन गई। उनके पिता बेहरम खान हाश्तनाघर के जमींदार थे। बच्चा खान बेरहम के दूसरे बेटे थे। बच्चा खान स्कूल की पढ़ाई में बहुत होशियार थे और उनके गुरु रेवरेंड विग्राम से वे काफी प्रभावित थे। उन्हीं से उन्होंने शिक्षा के महत्व को जाना था।

स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी की पढ़ाई शुरू की। खान और उनके भाई अब्दुल जब्बर खान को उनके गुरू रेवरेंड विग्राम ने लंदन जा कर पढ़ाई करने की पेशकश की, लेकिन बच्चा खान की मां नहीं चाहती थी कि वे लंदन जाए। उसके बाद बच्चा खान अपने पिता की जमींदारी के व्यवसाय में ही उनकी सहायता करने लगे। 1912 में उन्होंने मेहरक़न्दा से शादी की, जो यार मोहम्मद खान की बेटी थी। उनके दो बेटे और एक बेटी थी। 1918 में उनकी पत्नी का निधन हो गया। इसके बाद उन्होने अपनी पत्नी की बहन नम्बता से शादी कर ली। उनकी एक बेटी और बेटा था, लेकिन 1926 में सीढ़ियों से गिरने से उनकी दूसरी पत्नी का भी निधन हो गया। इसके बाद युवा होने के बावजूद उन्होनें दोबारा शादी करने से मना कर दिया ।

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समाजसुधारक गतिविधियां

1910 में उन्होनें 20 साल की उम्र में अपने घरेलू स्थान उत्मंजाई में एक मदरसे की शुरूआत की थी। उसके एक साल बाद तुरंग्जाई के स्वतंत्रता सेनानी हाजी साहिब के स्वतंत्रता अभियान में शामिल हो गऐ। वे 1920 में खिलाफत आंदोलन में भी शामिल थे। लेकिन 1915 में ब्रिटिश अधिकारियों ने मदरसों पर पाबंदी लगा दी थी, लेकिन इससे दुखी होकर भी वे परेशान नहीं हुए। इसकें बाद वे सामाजिक कार्य और सुधार करने के कार्यो में लग गए, जो पश्तून समुदाय के लिए भी लाभदायक साबित हुआ। इस के बाद 1921 में अंजुमन-ए-इस्लाह-ए-अफघानिया और 1927 में पश्तून असेंबली की स्थापना की गयी। बच्चा खान महात्मा गांधी के अहिंसावादी तत्वों से काफी प्रभावित थे। इसी लिए गांधी जी से प्रेरित होकर रोलेट एक्ट के समय वे भी राजनीति में शामिल हो गये।

आज़ाद पश्तूनिस्तान राज्य की मांग

1928 में उन्होनें मक्का मदीना से वापिस आने के बाद पश्तून भाषा की स्थापना की। 1929 में खान ने खुदाई खिदमतगार (भगवान के दास) अभियान की स्थापना की। जिसकी सफलता के चलते ब्रिटिश अधिकारी उनका और उनके समर्थकों का विरोध करने लगे। भारतीय स्वतंत्रता अभियान में उन्होंने जमकर ब्रिटिश राज का सामना किया था। खान ने विभाजन की मांग करने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का भी जमकर विरोध किया। विभाजन के बाद लोग हिंदुस्तान और पाकिस्तान जा रहे थे, लेकिन खान ने कहीं जाने की बजाय 1947 में खान और दूसरे खुदाई खिदमतगारो ने मिलकर बन्नू आंदोलन की घोषणा कर दी, जिसमें उन्होंने पश्तून को अपना खुद का आज़ाद पश्तूनिस्तान राज्य चुनने की अनुमति और उस राज्य में देश के सभी पश्तून प्रदेशों को उसमें शामिल किया जाए की मांग की, लेकिन उनकी इस मांग को ब्रिटिश राज ने मानने से इंकार कर दिया था।

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जेल में बिताया समय

वे विभाजन का कारण पाकिस्तान को मानते थे इसलिए विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान से बदला लेने की कोशिश की लेकिन वे विफल रहे और जल्द ही उन्हें पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें 1948 और 1954 के बीच गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद 1956 में एक इकाई कार्यक्रम का विरोध करने पर उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया, उन्होंने कम से कम दस साल जेल में बिताए।

उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर समय सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में ही बिताया। 20 जनवरी 1988 को 97 साल की उम्र में उन्होंने पेशावर में आखिरी सांस ली। उनकी इच्छा थी कि उनके मरने के बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान के जलालाबाद में उनके घर पर दफनाया जाए। उनकी इच्छानुसार उन्हें वहीं दफ़नाया गया। लेकिन जब उनके अंतिम संस्कार में शोक मनाने पहुंचे, तो यात्रा के दौरान हुए दो बम विस्फोट की वजह से 15 लोग मारे गए थे।  

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