बदले हुए तथाकथित चमचमाते भारत के बदले हुए परिवेश मेँ गौर से देखिये तो आपको बच्चे कम, बाप ज्यादा पैदा होते मिलेगेँ।
बच्चोँ का एक वर्ग संपन्न परिवार के बच्चोँ का है जो अपनी प्रतिभा से चमत्कृत करता है। सारे गा मा प मेँ गाता है,दुलार की उम्र मेँ ईश्क समझने लगा है। 7 वर्ष की कच्ची साफ्ट उम्र मेँ हाथ मेँ हार्डवेयर माउस लिए कंम्पयुटर चलाता है। 8 साल की फूल सी नाजुक उम्र मेँ ओक्का बोक्का चंदन काठी खेलने के बजाय नेट पर खुनी विडियो गेम खेलता है, काठ के घोड़े चढ़ने की जिद करने की उम्र मेँ स्कुटी दौड़ाता है। हवा मिठाई खाने की उम्र मेँ रजनीगंधा गुटखा खाता है, फ्रुटी पीने की उम्र मेँ बीयर गटक जाता है, अब आप ही बताईए ये आपके हमारे बाप नहीँ तो क्या हैँ।
इधर बच्चोँ का एक वर्ग ऐसे बच्चोँ का भी है साहब जो सुबह पीठ पर हुरकुच्चा मार के जगाया जाता है,उँघते हुए वो उठता है और चाय दुकान पर या नाश्ते की दुकान पर कमाने निकल जाता है। बीड़ी पीता है। पिज्जा इसने देखा नहीँ सो खैनी खाता है, खिलौने तोड़ने की उम्र मेँ पत्थर तोड़ता है,कंधे पर घुमने की उम्र मेँ ईँट भट्टे पर ईँट ढोता है, खेल खेल मेँ बालु का घर बनाने की उम्र मेँ वो बीड़ी बनाता है, कुल मिला कर वो कचरस उम्र से ही खुन जला के कमाता है और बिना एहसास हुए घर चलाता है क्योँकि ये तय है कि ऐसे बच्चोँ के घर मेँ अगर रोटी माँ बर्तन पोछा कर कमा के लाती है तो दाल इस बच्चे की कमाई से आती होगी, अब आप बताईए के इस छोटे उम्र मेँ अपने इन जिम्मेदारियोँ के लिहाज से ये बच्चे भी बाप नहीँ तो और क्या हैँ?
हुजुर ये घर चलाने वाले लोग हैँ,बच्चा मत कहिये। यानि संपन्नता के बीच हो या विपन्नता के बीच पर आज सही मायने मेँ बचपन कहीँ नहीँ बचा।
आज के बच्चे, बच्चे नहीं बाप हैं
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