Friday, October 11, 2024
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सावित्रीबाई: पहली फेमिनिस्ट आइकॉन

नेहा राठौर

आज के दिन यानी 10 मार्च को आधुनिक भारत की पहली प्रसिद्ध भारतीय समाज सुधारक, शिक्षाविद और कवि सावित्रीबाई फुले का निधन हुआ था। सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली फेमिनिस्ट आइकॉन मानी जाती हैं। उन्होंने भारत के सामाजिक सुधार आंदोलन की अहम नायिका रहीं। सावित्रीबाई ने सामज सुधारक पुरुष ज्योतिबाराव फुले द्वारा खोला गया पहला कन्या विद्यालय में अध्यापन किया था इसलिए उन्हें देश की पहली महिला शिक्षिका के खिताब से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपने जीवन में जातिवाद और पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था को ललकारते हुए बालिका शिक्षा को समाज के लिए बड़ी ज़रूरत बताया था।

सावित्रीबाई ने जातिगत भेदभाव, अत्याचार और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ न केवल शिक्षा और सामाजिक कामों के ज़रिये जागरूकता पैदा की बल्कि कई कविताएं भी लिखीं।

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सावित्रीबाई और ज्योतिबाराव फुले

सावित्रीबाई की 10 साल की उम्र में ही 13 साल के ज्योतिबाराव फुले से शादी कर दी गई थी। बाद में समाज सुधार की इस मुहिम में दोनों ने मिलकर लड़ाई लड़ी। सबसे पहले उन्होंने कुरितियों को खत्म करने की ठानी, इसलिए उन दोनों को जात से बाहर कि दिया गया था, इसके बावजूद भी सावित्रीबाई ने महिलाओं की शिक्षा की जीद को छोड़ा नहीं। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक के बाद एक 18 कई कन्या शाला खोली। उस वक्त 1848 में पहले कन्या विद्यालय में सिर्फ नौ छात्राएं ही आईं थी। सावित्रीबाई इस स्कूल में सिर्फ पढ़ाती ही नहीं थी, ब्लकि वह लड़कियां को शिक्षा लेने के लिए आर्थिक रूप से मदद भी करती थी। सावित्रीबाई खुद महाराष्ट्र के सातारा ज़िले के नैगांव में एक किसान के घर जन्मी थी, जहां शिक्षा को लेकर कोई जगरुकता नहीं थी इसलिए वह शिक्षा के महत्व को जानती थी। उनका जन्म 3 जनवरी 1831 में हुआ था।

शिक्षा के अलावा सावित्रीबाई ने उस वक्त विधवाओं के सिर के बाल मुंडवाए जाने की प्रथा का विरोध किया और बलात्कार के कारण पीड़िताओं के मां बनने पर उनकी संतान को समाज स्वीकार नहीं करता था इसलिए सावित्रीबाई ने पीड़िताओं के लिए कई केयर सेंटर भी खोले। इतना ही नहीं उन्होंने अपने घर में अछूत लोगों के लिए कुआं खुदवाया।

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जब 1897 में पुणे में ब्यूबोनिक प्लेग महामारी की चपेट में आने वालों के इलाज के लिए अपने बेटे के साथ में क्लीनिक खोला। इसी दौरान लोगों मरिजो की सेवा करते हुए वह खुद इसकी चपेट में आ गईं। इसी कारण 10 मार्च 1897 में उनका निधन हो गया।

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