Friday, May 3, 2024
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मिर्जा का शायराना जीवन

आज का दिन

नेहा राठौर

‘इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी काम के थे’ ये पंक्तियां तो बहुत बार सुनी होंगी और कई बार कही भी होगी। इन्हीं शायरी और कविताओं में छिपे हैं ग़ालिब की जिंदगी के कुछ यादगार पल। आज हम बात करेंगे उस कवि की जिसने आज भी पूरे देश को अपनी कविता में समेट कर रखा है। जिसे देखों, जहां देखों उनकी ही कविताओं को दोहराता दिखता है। उस महान कवि का नाम मिर्जा ग़ालिब है। आज ही के दिन यानी 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने अपनी आखिरी सांस ली थी। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के काला महल में हुआ था।

उनके दादा जी, एक सलजूक तुर्क थे, जो अहमद शाह (1748-1754) के शासनकाल के दौरान समरकंद( उजबेकिस्तान) से भारत में आये थे। भारत आने के बाद उनके पिता जी मिर्जा अब्दुल्ला बेग खान ने लखनऊ के नवाब के यहां लाहौर, दिल्ली और जयपुर में काम किया और आखिर में आगरा के काला महल में जा कर बस गए, जहां मिर्जा ग़ालिब का जन्म हुआ। जब मिर्जा ग़ालिब के पिता का 1803 में अलवर की लड़ाई में देहांत हुआ, तब मिर्जा सिर्फ पांच साल के थे। उनके पिता के देहांत के बाद उनके चाचा नासरुल्ला बेग खान ने उनका पालन पोषण किया।

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मिर्जा का सफर

मिर्जा ने 11 साल की उम्र से ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। वह उर्दू में अपनी कविताएं लिखा करते थे। उनके चाचा के यहां उर्दू के अलावा फरसी और तुर्की भी बोली जाती थी। इसलिए मिर्जा ने फरसी और तुर्की भी सिखी और उनमें कई कविताएं भी लिखी। मिर्जा की जिंदगी में दुखों का कारवा यहीं नहीं रुका। 1806 में उनके चाचा की भी मौत हो गई। मुस्लिम परंपरा का पालन करते हुए तेरह साल की उम्र में ग़ालिब ने उमराव बेगम से शादी की। फिर वह अपने छोटे भाई मिर्जा यूसुफ़ के साथ दिल्ली चले गए (जिनकी 1857 की हिंसा में मौत हो गई थी)। ग़ालिब बहुत समय तक दिल्ली में रहे। वह वहां आखिरी मुगल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के बेटे फ़क्र-उद-दिन को शायरी सिखाने लगे थे। उनकी शायरी और कविता शहंशाह को भी बहुत पसंद आती थी, क्योंकि बहादुर शाह खुद शायरी और कविता लिखा करते थे। 1850 में बहादुरशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा था। इसके बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी दिया गया था।

एक किस्सा ऐसा भी

एक बार ग़ालिब के दोस्त की पत्नी की मौत हो गई, तो उन्होंने अपने दोस्त को पत्र लिखा, जिसे पढ़ने से ऐसा लगता है कि ग़ालिब अपनी शादी से खुश नहीं थे। शोक पत्र में मिर्ज़ा ने लिखा था कि “मुझे खेद है, लेकिन उससे ईर्ष्या भी है। कल्पना करो! वह अपनी जंजीरों से मुक्त हो गई है और यहां मैं आधी शताब्दी से अपने फंदे को लेकर घूम रहा हूँ।” लेकिन वहीं उन्होंने अपनी ज्यादातर शायरी और कविताओं में अपनी पत्नी का जिक्र किया है, जिससे यह लगता है कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे। उनके दुख का एक कारण यह भी हो सकता है की उनकी सात संतान थी लेकिन कोई भी नहीं जिंदा नहीं बची। इस कारण उन्हें जुआ और शराब की लत लग गई।

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मिर्जा की ढ़लती उम्र का दर्द

उनके जीवन में मोड 1857 के बाद आया। मुगल सम्राज्य का पतन हो चुका था। मिर्जा की भूखे मरने जैसी हालत हो गई थी। अब वह गलियों में अपनी शायरी सुनाने लगे थे। ढ़लती उम्र में उनके शरीर में काफी दर्द रहने लगा था। वह दर्द से करहाते रहते थे। एक दिन एक नौकर उनके पैर दबाने लगा तभी मिर्जा ने मना कर दिया, इस पर नौकर ने कहा की अगर मेरा पैर दबाना बुरा लग रहा है, तो मुझे इसके पैसे दे देना। जब नौकर ने पैर दबाने के बाद पैसे मांगे, तो मिर्जा ने दर्द में हस्ते हुए कहा ‘तूने मेरे पैर दबाए, मैंने तेरे पैसे दबाए, हिसाब बराबर’। 1869 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के एक साल बाद ही उनकी पत्नी की भी मौत हो गई। इन दोनों की कब्र को निज़ामुद्दीन में दफ़नाया गया। जिसे आज मिर्जा का मक़बरा कहा जाता है।

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