क्या कभी राष्ट्रीय चुनौती बन सकती हैं क्षेत्रिय पार्टियां?

Can regional parties ever become a national challenge?

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए कमर कस रही पार्टियों में से लगभग सभी पार्टियां क्षेत्रीय हैं। यह एक स्तर पर उनकी ताकत है तो दूसरे स्तर पर कमजोरी भी है। उनकी ताकत यह है कि लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियों के पास दमदार नेता हैं, जो २४ घंटे राजनीति करते हैं। सभी प्रादेशिक पार्टियों के पास एक मजबूत सामाजिक समीकरण यानी वोट का एक आधार है और अपने अपने राज्य में उनके पास अच्छा खासा सांगठनिक ढांचा है। अपने राज्य में राजनीति करने के लिए उनके पास एक स्पष्ट वैचारिक आधार भी है। यही कारण है कि ज्यादातर राज्यों में, जहां मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां हैं वहां विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए हमेशा चुनौती होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तमाम लोकप्रियता और प्रचार के बावजूद उन राज्यों में भाजपा बहुत सफल नहीं हो पाती है। इसके अपवाद भी हैं लेकिन अपवादों से ही नियम प्रमाणित होते हैं।
अपने अपने राज्य में प्रादेशिक पार्टियों की ताकत प्रमाणित है लेकिन जब राष्ट्रीय चुनाव की बात आती है तो उनकी कमजोरी उजागर हो जाती है। उस समय मतदाता यह देखते हैं कि उन्होंने प्रदेश के चुनाव में जिस प्रादेशिक नेता को वोट दिया है क्या उसकी अखिल भारतीय पहचान है? क्या उसे देश के दूसरे हिस्सों में वोट मिलेंगे? क्या उसके पास कोई राष्ट्रीय दृष्टि या बड़ा एजेंडा है? क्या कोई प्रादेशिक नेता देश का प्रधानमंत्री बन सकता है और अगर बनता है तो उसके नेतृत्व में बनने वाली सरकार क्या राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने वाली मजबूत सरकार होगी? इस विमर्श के बीच ही नरेंद्र मोदी प्राथमिक विकल्प के तौर पर उभरते हैं, जिनके बारे में यह धारणा बनी है या बनाई गई है कि वे मजबूत नेता हैं, उनकी कमान में देश को मजबूत और स्थिर सरकार मिली है, उनके नेतृत्व में देश विश्व गुरू बनने की ओर बढ़ रहा है और उनके पास हिंदुत्व से लेकर राष्ट्रवाद तक का बड़ा एजेंडा है। यह धारणा बड़ा फर्क पैदा कर देती है।
इस बीच पिछले एक-डेढ़ दशक में देश के मतदाताओं ने राज्यों के और राष्ट्रीय चुनाव में अलग अलग वोट देना सीख लिया है। वे विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अलग अलग तरह से मतदान करते हैं। मतदाताओं के इस व्यवहार को कई राज्यों में देखा जा सकता है। लोकसभा चुनाव में देश में मजबूत सरकार के लिए भाजपा और नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट डालने वाले मतदाता विधानसभा चुनाव में प्रादेशिक पार्टियों को तरजीह देते हैं। हालांकि इस सिद्धांत पर बात करते हुए यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि राज्यों के चुनाव में भाजपा का वोट बहुत कम हो जाता है। उसके पास हर राज्य में एक निश्चित वोट है, जिसमें बहुत कम घट-बढ़ होती है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में २०१९ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ४० फीसदी वोट मिले थे। वह वोट नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए था। इसके दो साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को फिर से राज्य का मुख्यमंत्री बनाने के लिए मतदान हुआ तब भी भाजपा को ३८ फीसदी वोट मिले। यानी बहुत स्थानीय स्तर पर मतदान होने के बावजूद भाजपा के वोट में कमी नहीं आई। कमोबेश यह स्थिति पूरे देश में है। लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट थोड़ा ज्यादा हो जाता है और विधानसभा चुनाव में कम होकर पारंपरिक आधार के बराबर आ जाता है।
इसके अलावा दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों को छोड़ दें लगभग पूरे देश में क्षेत्रीय पार्टियों के लिए लोकसभा चुनाव में विधानसभा चुनाव का अपना प्रदर्शन दोहराने में मुश्किल होती है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को रोक देने वाली पार्टियां भी लोकसभा में उसे नहीं रोक पाती हैं। इस मामले में कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड भी क्षेत्रीय पार्टियों जैसा ही है। मिसाल के तौर पर २०१८ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, तीनों राज्यों में बहुमत हासिल करने में कामयाब रही थी। छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को तीन चौथाई से ज्यादा सीटें मिलीं। लेकिन लोकसभा चुनाव में राजस्थान व मध्य प्रदेश में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई और छत्तीसगढ़ में से भी ११ में से सिर्फ दो सीट जीत पाई। पश्चिम बंगाल, ओडिशा , झारखंड, दिल्ली, हरियाणा जैसे अनेक राज्यों में यह ट्रेंड देखने को मिला।
इसका अर्थ यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अपने दम पर राष्ट्रीय चुनाव में भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनौती देना बहुत मुश्किल है। भाजपा को चुनौती देने का एकमात्र रास्ता यह है कि विपक्षी पार्टियां साथ आएं और जिस राज्य में जिस पार्टी का मजबूत आधार है या जो मुख्य पार्टी हो वह उस राज्य में गठबंधन का नेतृत्व करे। इस तरह का गठबंधन बनाना बहुत मुश्किल नहीं होगा क्योंकि जो मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां हैं वे या तो अपने राज्य की सत्ता में हैं या मुख्य विपक्षी पार्टी हैं। डीएमके, बीआरएस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, राजद-जदयू और जेएमएम ये सभी अपने अपने प्रदेश में सरकार चला रहे हैं। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में और एनसीपी महाराष्ट्र में मुख्य विपक्षी पार्टी है। सो, स्वाभाविक रूप से ये पार्टियां अपने अपने राज्य में गठबंधन का नेतृत्व कर सकती हैं। इन पार्टियों के वर्चस्व वाले राज्यों में कांग्रेस को समझौता करना होगा और बदले में इन पार्टियों को कांग्रेस के असर वाले राज्यों में कांग्रेस का समर्थन करना होगा। इस तरह से गठबंधन बनाना बहुत मुश्किल नहीं होगी। कई क्षेत्रीय पार्टियां पहले से इसका ताना-बाना बुन रही हैं।
इस तरह का गठबंधन बनाने और उससे नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में विपक्ष के सामने दो मुश्किलें आएंगी। पहली मुश्किल अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से है, जिसको हाल में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है। केजरीवाल मान रहे हैं कि ईश्वर उनसे कुछ कराना चाहते हैं इसलिए चमत्कार की तरह उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया है। ‘ईश्वर की इच्छा’ को साकार करने के लिए वे ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लडऩा चाहेंगे और तब कांग्रेस के साथ उनका टकराव होगा। हालांकि उनकी कमजोरी यह है कि विचारधारा के स्तर पर उनमें बहुत भटकाव है और देश के ज्यादातर राज्यों में संगठन नहीं है। विपक्ष के सामने दूसरी मुश्किल यह होगी कि उसके पास बड़ा एजेंडा नहीं है। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व के भाजपा के एजेंडे के सामने विपक्ष के पास कोई बड़ा एजेंडा नहीं है। कुछ पार्टियां किसान का मुद्दा बना रही हैं लेकिन उसका असर एक सीमित इलाके में होगा। विपक्ष अगर राज्यवार गठबंधन बनाए और एक राष्ट्रीय एजेंडा तय करे तभी वह भाजपा को चुनौती देने में सक्षम होगा। हालांकि तब भी मोदी के मुकाबले कौन का यक्ष प्रश्न अनुत्तरित रहेगा, जिसका चुनाव के समय मतदाताओं के दिमाग पर बड़ा असर होगा।

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