Saturday, January 11, 2025
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आखिर न्यायपालिका को क्यों करना पड़ रहा है विधायिका में हस्तक्षेप?

सी.एस. राजपूत 

देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए तीन स्तंभ बनाये गये हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। मीडिया को भी चौथा स्तंभ माना गया है। इन सभी तंत्रों में न्यायपालिका को सबसे महत्वपूर्ण और पावरफुल बनाया गया है। यदि आज की बात करें तो विधायिका ऐसा तंत्र है जिसे न केवल सबसे अधिक पावरफुल बनाने का प्रयास हो रहा है बल्कि इस तंत्र में गैर जिम्मेदाराना और गैर जवाबदेही वाला रवैया सबसे अधिक देखा जा रहा है। विधायिका जहां न्यायपालिका पर अंकुश लगाने का प्रयास कर रही है वहीं नैतिकता इस तंत्र से कोसों दूर हो गई है। चाहे कोई सा भी सदन हो कोई भी जनप्रतिनिधि हो, व्यवहार ऐसा कि गली मोहल्ले की राजनीति भी शर्मा जाए। स्थिति यह है कि सदन से मामले न निपटने की वजह से न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।


महाराष्ट्र में चुनाव आयोग के शिवसेना एकनाथ शिंदे गुट को देने पर मामला सुप्रीम कोर्ट में है। दिल्ली एमसीडी में मेयर चुनाव को लेकर जहां आम आदमी पार्टी को सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा वहीं अब स्टैंडिंग कमेटी को लेकर बीजेपी सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रही है। कोलेजियम प्रणाली को लेकर केंद्र सरकार का टकराव सुप्रीम कोर्ट से चल रहा है। उत्तर प्रदेश में सत्ता पक्ष विपक्ष पर सदन न चलने का आरोप लगा रहा है। विपक्ष के मीडिया से बात करने पर मीडिया को भी खदेड़ दिया जा रहा है। लोकसभा में जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे विपक्ष पर अपने को भारी करने का बयान दिया तो संसद में राहुल गांधी ने अडानी ग्रुप को लेकर मोदी के खिलाफ पूरी तरह से भड़ास निकाली। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा पर मोदी के पिता जी को राजनीति में घसीटने को लेकर बीजेपी ने कोहराम मचाया हुआ है।

आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एलजी वीके सक्सेना पर अवैध फैसले लेने का आरोप लगाकर उन्हें भाजपा का एजेंट करार दे दिया है तो बीजेपी केजरीवाल और दूसरे आप नेताओं को नक्सली तक बता देती है। देश की राजनीति ऐसी हो गई है कि राजनीतिक दल बैठकर जनहित के मुद्दे नहीं सुलझा पा रहे हैं। हां यदि बात नेताओं और जनप्रतिनिधियों की सुविधा की हो तो सब एक हो जा रहे हैं।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आलोचना करते देखे जाते हैं तो आप सांसद संजय सिंह लगातार सड़क से लेकर संसद तक अडानी हिंडनबर्ग मामले पर प्रधानमंत्री को ललकार कर रहे हैं। देश में जो पंडित नेहरू, डॉ. राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी की नैतिक और तर्कों के साथ परोसी जाने वाली भाषा सदन से गायब है। भारतीय नेताओं में आलोचना सुनकर उससे सीखने का माद्दा पूरी तरह से खत्म है। विपक्ष में बैठकर जनहित में मुद्दे उठाने की राजनीति देश से खत्म होती जा रही है।

हर पार्टी और हर नेता का यह प्रयास है कि किसी तरह से सत्ता में बैठकर देश के संसाधनों का मजा कैसे लूटा जाए। देश के हर सदन में राजनीतिक लोग कम और धंधेबाज लोग ज्यादा देखे जा रहे हैं। इन लोगों को देश और समाज से ज्यादा चिंता अपने धंधे की होती है। ये लोग अपनी राजनीति का इस्तेमाल अपने धंधे को आगे बढ़ाने में कर रहे हैं। यही वजह है कि देश के नेता पर कितना भी बड़ा आरोप हो उसका कुछ नहीं बिगड़ रहा है। आम आदमी पार्टी सत्तारूढ़ पाटी के साथ ही विपक्ष में बैठे दलों के एजेंडे से गायब हैं। राजनीतिक दलों का हर मुद्दा वोटबैंक को ध्यान में रखकर तैयार हो रहा है।

 

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