Jyotiba Phule : दलितोद्धार के लिए झेलना पड़ा सामाजिक बहिष्कार 

महात्मा ज्योतिबा फुले एक क्रांतिकारी कार्यकर्ता,समाज सुधारक, प्रबोधक, विचारक ,समाजसेवी, लेखक, दर्शनिक थे। महात्मा ज्योतिबा फुले ने सितंबर 1873 में महाराष्ट्र के सत्यशोधक समाज संस्था का गठन किया।उन्होंने जीवन भर महिलाओं की शिक्षा ,महिलाओं को समान अधिकार एवं दलितोद्धार की लड़ाई लड़ी।

पवन कुमार 
आज समाज सेवा व्यापार बन गई है।आज लोग समाजसेवा लोकप्रियता या राजनीतिक, कॉमर्शियल लाभ के लिए करते हैं ये लेख उन समाज सेवियों के लिए सबक होगा जो दो केले दान कर या किसी के राशन कार्ड की पैरवी कर किसी को ब्लड दान एवं छोटे छोटे काम कर सोशल मीडिया पर ऐसे दिखाते हैं, जैसे उनसे बड़ा समाज सेवी कोई और नहीं,ओर कुछ तो खुद को वरिष्ठ समाज सेवी लिखते हैं। ये सबक है उन लोगों के लिए जिन्होंने शिक्षा को व्यापार बना दिया है। लेखक की टिपनी किसी व्यक्ति विशेष पर नही है।
11 अप्रैल 1827 को पुणे महाराष्ट्र में पिता गोबिंद राव फुले माता चिमना बाई फुले के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ जिसका नाम ज्योतिबा राव गोविंदराव फुले रखा गया को आगे चलकर इनको महात्मा ज्योतिबा राव फुले,अथवा महात्मा फुले नाम से जाना गया।
महात्मा फुले की एक वर्ष की उम्र में ही इनकी माता चिमनाबाई का देहांत हो गया इनकी परवरिश के लिए सगुनाबाई नामक दाई को रखा गया।इनका परिवार कई पीढ़ियों से पुल के गुलदस्ते, गजरे बेचने का काम करते थे,ये फूल का काम करते थे इसीलिए इन्हें फुले कहा जाता था। ज्योतिबा फुले ने कुछ समय मराठी में पढ़ाई की लेकिन कुछ लोगों के बहकावे में आकर कि पढ़ाई से कुछ नहीं होगा, उनके पिता ने उनको पढ़ाई से रोक दिया। लेकिन कुछ लोगों के समझाने के बाद उनको फिर से स्कूल भेज दिया गया है। जानकारी के अनुसार उन्होंने पढ़ाई में कॉफी लंबा फांसला होने के कारण उन्होंने 21 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी से सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की।
महात्मा ज्योतिबा राव फुले संत महात्मा विचारकों ,की लिखनी अधिक पढ़ते थे , इसी कारण वह स्त्री और पुरुषों में भेदभाव के खिलाफ थे। इसी भेदभाव को मिटाने के लिए उन्होंने स्त्रियों के लिए एक स्कूल खोला।
आपको बताते चलें कि 1840 में सावित्रीबाई से उनका विवाह संपन्न हुआ।
सकूल में पढ़ाने के लिए जब कोई महिला अध्यापक नहीं मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ा कर इस योग्य बनाया की वह स्त्रियों को पढ़ा सके,यह महिलाओं के लिए पहला स्कूल था।ओर इस तरह सावित्री बाई भारत की पहली महिला अध्यापक हुई। यूं तो सभी समाज सुधारकों ने बहुत सी कठिनाइयों का सामना किया। महात्मा फुले को भी अग्रणी वर्ग के लोगों का विरोध झूलाना पड़ा और इसके चलते उन लोगों के बहकावे में आकर उनके पिता ने दोनो पति पत्नी को घर से निकाल दिया।उनका कार्य कुछ समय के लिए थम गया लेकिन महात्मा फुले ने जल्दी ही फिर से स्कूल खोल दिया।
महात्मा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज नामक संगठन (संस्था) का गठन किया और इसी दिन उनकी पुस्तक गुलमगिरी का प्रकाशन हुआ।इस किताब के आधार पर देश में कई जगह आंदोलन खड़े हुए। पूरे जीवन में महात्मा ज्योतिबा फुले ने स्त्रियों की शिक्षा और दलितोद्धार के लिए लड़ाई लड़ी और भारत में महिलाओं के अधिकार के लिए और मान सम्मान की लड़ाई लड़ते रहे। अट्ठारह सौ पचास के दशक में सावित्री बाई और ज्योतिबा फुले ने दो शैक्षिक ट्रस्ट की स्थापना की।
ज्योतिबा फुले का मुख्य योगदान समाज के निचले दवे कुचले शोषित तबके की लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरू करना था और उन्होंने जाति विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया और महिलाओं के लिए शिक्षा को बढ़ावा दिया।बाल विवाह के विरोधी और विधवा विवाह के पक्ष में थे।
महात्मा ज्योतिबा फुले दे अछूत उद्धार के लिए उनके बच्चों को घर में पनाह दी और उनके लिए अपनी पानी की टंकी (पीने के पानी के तालाब का मुंह) खोल दिया, और परिणाम स्वरूप उनको जाती से बहिष्कृत कर दिया गया । महात्मा ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही विवाह संस्कार आरंभ कराया इसे मुंबई हाई कोर्ट भी मान्यता दी।
उन्होंने लगभग 151 वर्ष पूर्व कृषि विद्यालय की स्थापना करने की बात कहीं थी।जानकार बताते हैं कि 1875 में जो पुणे और अहमद नगर में किसानों का आंदोलन हुआ वह महात्मा फुले की पुस्तक गुलाब गिरी की प्रेरणा से ही हुआ था ।
*महर्षि दयानंद ने ली मदद- स्वामी महर्षि दयानंद जी ने जब मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की तो विरोधियों के विरोध को देखते हुए उन्होंने ज्योतिबा फुले की मदद ली थी।

बाबा भीमराव अंबेडकर ने कहा तीसरा गुरु

बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपने भाषण में गोतम बुद्ध ,संत कबीर ने बाद तीसरा गुरु महात्मा ज्योतिबा फुले को बताते हैं।वे अपनी सक्रिय आंदोलन में महात्मा ज्योतिबा फुले को अपनी प्रेरणा का स्रोत बताते हैं। अंबेडकर जी महात्मा ज्योतिबा फुले के व्यक्तित्व से अत्याधिक प्रभावित थे।
1890 में महात्मा ज्योतिबा फुले के दाएं भाग को लकवा मार गया था तब उन्होंने बाएं हाथ से सार्वजनिक सत्य धर्म नामक किताब लिखनी शुरू की थी।28 नवंबर 1890 में उन्होंने संसार छोड़ दिया,उनकी मृत्यु के बाद ही यह किताब छपी।आज जरूरत है महात्मा फुले जैसे महापूर्षो पद चिन्हों पर चलने की

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