Monday, April 29, 2024
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जोश मलीहाबाद: दिया जश्ने—आजादी का शायर-ए-इंक़लाब

नेहा राठौर

काम है मेरा तगय्युर, नाम है मेरा शबाब
मेरा ना’रा इंक़लाब ओ इंक़लाब ओ इंकलाब!

यह शायरी एक देश भक्त के अंदर आजादी की ज्वाला को दर्शाती है, इस शायरी को लिखने वाले कवि जोश मलीहाबादी, शायर-ए-इंक़लाब नाम से भी प्रसिद्ध हैं। आज के दिन यानी 22 फरवरी को उनका निधन हुआ था। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी योगदान दिया। उनकी कविता हुसैन और इंक़लाब के बाद ही उन्हें शायर-ए-इंकलाब का खिताब दिया गया। जोश का जन्म मलीहाबाद, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत में अफरीदी पठान मूल के एक उर्दू भाषी मुस्लिम परिवार में हुआ था।

उन्होंने अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर ही प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने आगरा में सेंट पीटर्स कॉलेज में पढ़ाई की, फिर उन्होंने अपनी वरिष्ठ कैम्ब्रिज परिक्षा को पास किया। इसके बाद उन्होंने अरबी और फ़ारसी की पढ़ाई की, इसी दौरान 1916 में उनके पिता बशीर अहमद खान की मृत्यु हो गई और वह कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए।

उनके परिवार में कविता लेखन की एक परंपारा थी, उनके परदादा, नवाब फकीर मुहम्मद खान से लेकर उनके पिता तक सभी पुरुषों ने कई रचनाएं (कविता संग्रह, अनुवाद और निबंध) की थी। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत 1925 में हैदराबाद की रियासत में उस्मानिया विश्वविद्यालय में अनुवाद कार्य की देखरेख से की, लेकिन वह वहां ज्यादा समय तक रुक नहीं पाए, क्योंकि उन्होंने राज्य के तत्कालीन शासक हैदराबाद के निजाम के खिलाफ एक नज़्म लिखी थी, जिस वजह से उन्हें वहां से निर्वासित होना पड़ा।

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कलीम पत्रिका

इसके कुछ समय बाद जोश ने कलीम पत्रिका की स्थापना की, जिसमें उन्होंने भारत में ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता के पक्ष में कई लेख लिखे। अपने लेखों के जरिए वह इस आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से शामिल हो गए, उनके इस लड़ाई में शामिल होने से वह कुछ राजनीतिक नेताओं के करीबी हो गए। उनकी जवाहरलाल नेहरु से अच्छी पटती थी। आखिरकार कई कुरबानियों के बाद देश को 1947 में आज़ादी मिली। आज़ादी के बाद 1956 तक जोश भारत में रहे। भारत में रहकर उन्होंने आज-कल के संपादक के रूप में काम किया।

पाकिस्तान का सफर

1956 में वह पाकिस्तान चले गए, क्योंकि उन्हें लगता था कि भारत में हिंदु बहुसंख्यक है इसलिए हिंदी भाषा के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाएगा बजाय उर्दू के। इसके बाद वह कराची में जा बसे और अंजुमन-ए-तरकार-ए-उर्दू के लिए काम करना शुरु कर दिया। इसके बाद 22 फरवरी 1982 में इस्लामाबाद में उनकी मृत्यु हो गई। अब उनकी विरासत को उनका बेटे और उनकी पोती ने कायम रखा है। 1956 में जोश को भारत में पद्म भूषण पुरसकार से भी सम्मानित किया था।

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