Sunday, May 12, 2024
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 जियें तो ऐसे जियें

देवेंद्र सिंह आर्य 

समग्र सृष्टि और एवं समस्त ब्रह्मांड में कोई ऐसा देश नहीं जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतियोगी तथा प्रतिभागी हो सके। भारत को ऐसे ही विश्व गुरु का पद प्राप्त नहीं था। बल्कि भारतवर्ष में अनेकों ऐसे दानवीर, शूरवीर ,उदारमना ,सरल हृदय पावन और पवित्र भावना वाले महापुरुष, ऋषि ,महात्मा, संत सृष्टि के प्रारंभ से अद्यतन पर्यंत होते रहे हैं। ब्रह्मा, मनु, आदि- ऋषि अग्नि, वायु ,आदित्य, अंगीरा, कपिल, कणाद, गौतम, दधीचि ,वेदव्यासजी ,जैमिनी पर्यंत अनेकों पथ प्रदर्शक, सुधारक, विचारक इस भारत भूमि पर पैदा हुए हैं। इसी कड़ी में लगभग 200 वर्ष पूर्व महर्षि दयानंद भी इस धरा पर आए। इसी कारण से आज भारत की केंद्रीय सरकार महर्षि दयानंद की जन्म की द्वितीय शताब्दी बड़े धूमधाम से मना रही है ।जिन्होंने भारतीय सभ्यता संस्कृति को अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से धनी किया है। हमें गर्व है कि हम ऐसे पावन देश में पैदा हुए। हम परमात्मा से प्रार्थना भी करते हैं यदि हमको पुनर्जन्म मिले तो इस भारत भूमि पर मिले । बार-बार जन्म मिले तो इसी पावन भूमि पर मिले।
ऋषि दधीचि, कर्ण, रंतिदेव ,उशी नर जैसे अनेकों दानवीर इस भारतीय भूभाग पर हुए हैं। जिन्होंने अपने प्राण की चिंता न करते हुए सर्वस्व दान किया।
ऋषि दधीचि ने दुष्ट दहन के उद्देश्य से असुरों के विनाश के लिए देवताओं को अपनी हड्डियों दान की। दानवीर कर्ण ने अपने कवच और कुंडल अपनी मृत्यु की परवाह न करते हुए दान की जबकि उनको मालूम था कि कवच और कुंडल के बिना वह महाभारत के युद्ध में सुरक्षित नहीं रह सकते। परंतु तनिक भी परवाह नहीं की अपने प्राणों की।
रंतिदेव जो एक लंबे समय से भूख से व्याकुल थे जब उनको खाने का थाल परोसा गया तो एक भिखारी के रूप में व्यक्ति आता है और उनसे खाने की याचना करता है। तो उन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए उस व्यक्ति को थाल हाथ में आया हुआ भी दान दे दिया।
ऐसे उदाहरण केवल आपको भारतीय समाज में ही मिलेंगे।
हमको गर्व है ऐसे तप:पूतों के पर ।
यह केवल भारत की संस्कृति है जहां मनुष्य मात्र को बंधु समझा जाता है। जहां सबका पिता एक ही माना जाता है जहां एक ही पिता की संतान सबको समझा जाता है। जहां एक दूसरे मनुष्य के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी जाती है। जहां किसी को छोटा बड़ा नहीं समझा जाता। जहां कोई भेदभाव नहीं। जहां सब को गले लगाया जाता है। जहां पर सभी धर्म , दर्शन एवं सभ्यताएं समान रूप से विकसित होती है ।
जहां सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना हैं ।जहां वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा रही है। विश्व बंधुत्व जहां का नारा है। जहां जहां धनिक होने का घमंड नहीं है जहां सबको समान अवसर मिलते हैं। जहां ईश्वर को कण-कण में देखा जाता है। जहां नारायण के नर में दर्शन करते हैं। जहां सभी मिलजुल कर रहते हैं।
ऐसे ही उदार लोगों की कथा को सरस्वती व्याख्यान करती है।
ऐसे ही लोगों की कीर्ति सृष्टि पर्यंत कूजती है, गूंजती है।
इसलिए संसार में आए हो तो ऐसे जियो कि जो मृत्यु के पश्चात भी सभी आपको याद करें। अगर ऐसी सुमित यू नहीं होती है तो बेकार जीए और बेकार मरे।
मैथिलीशरण गुप्त को ऐसे ही राष्ट्रकवि का सम्मान नहीं मिला बल्कि उन्होंने ऐसी कविताओं की रचना की है जिससे उनको राष्ट्रकवि कहां जाना अतिशयोक्ति नहीं है।
मैं उनकी एक कविता पढ़ रहा था। कविता को पढ़ते-पढ़ते मेरे हृदय में भाव आए कि मैं अपने सभी विद्वत जनों को उनकी कविता के भावों से अवगत कराउं।

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती ।
उसी उदार की सदा सजीव कृति कूजती
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म -भाव जो असीम विश्व में भरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
मनुष्य मात्र बंधु हैं यही बड़ा विवेक है।
पुराण पुरुष स्वभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाहृय भेद हैं।
परंतु अंतरैक्य में प्रमाण भूत वेद है।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी।
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थि जाल भी ।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया।
सहर्ष वीर करण ने शरीर चर्म भी दिया ।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
रहो ना भूल कर कभी मदांध तुच्छ वित्त में ।
सनाथ आपको करो न गर्व चित्त में ।
अनाथ कौन है यहां त्रिलोकीनाथ साथ हैं।
दयाल दीन बंधु के बड़े विशाल हाथ है
अतीव भाग्यहीन हैं अधीर भाव जो भरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव है खड़े ।
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े ।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ों सभी।
अभी अमृत्य अंक में अपन्क को चढो सभी।
रहो न यों कि एक से न एक का काम सरे।

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मेरे।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए।
विपत्ति विघ्न जो पड़े उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हां बढ़े न भिन्नता कभी।
अतर्क एक पंथ में सतर्क पंथ हो सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

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