बहुत से दोस्त साथी लगातर चुनाव लड़ने की बात करते हैं और दबाव देतें हैं कि मैं चुनावी राजनीति का हिस्सा बनूँ। मेरे जैसे सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता को यह सब अजीब–सा लगता है। मेरा राजनीतिक प्रशिक्षण किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा,जस्टिस राजेन्द्र सच्चर, कुलदीप नैयर, सुनील और डॉ. प्रेम सिंह के विचारों से हुआ है। उनके साथ काम करने का भी मौका मिला है। मैं इनके लेखन के द्वारा ही भारत के समाजवादी चिंतकों (राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव) की साहित्य तक पहुंचा हूं। कुछ विचार साहित्य और रचनात्मक साहित्य के अध्ययन की भी कोशिश करता हूं। यह सत्ता की राजनीति में एक छोटी–सी धारा है। लेकिन मैं नवउदारवाद और सांप्रदायिकता के गठजोड़ की सबसे सशक्त वैकल्पिक धारा मानता हूं। ऐसा मानने वाले बहुत–से युवक युवतियां देश में हैं। वे शोर नहीं मचाते। चुपचाप अपना काम करते हैं। मुख्यधारा का मीडिया उस काम का नोटिस नहीं लेता। अपने को क्रांतिकारी कहने वाले संगठन भी उस धारा से बच कर चलते हैं। क्योंकि उसमें अभी या बाद में नाम या लाभ मिलने की संभावना नहीं है।
किशन पटनायक ने अस्सी के दशक से ही देश के बुदि्धजीवियों को बार–बार आगाह किया था कि वे नई आर्थिक नीतियों यानी नवउदारवाद का विरोध करें। वह देश के संसाधनों और गरीबों के लूट की व्यवस्था है। लेकिन बुदि्धजीवियों ने उनकी बात पर कान नहीं दिया। किशनजी ने‘गुलाम दिमाग का छेद’ जैसा कान खोलने वाल लेख भी लिखा,लेकिन बुदि्धजीवियों को सरकारी संस्थानों के पदों और पुरस्कारों का लालच पकड़े रहा।
क्या वैचारिक और सामाजिक राजनीति के लिए कोई जगह हैं? क्या आर्थिक लूट बंद हो गई हैं । यदि नहीं तो मेरे जैसा सामान्य सा राजनीतिक कार्यकर्ता चुनाव लड़ने को तैयार कैसे हो सकता हैं?
नीरज कुमार
बिक्रमपुर