सौरभ विष की बेल से, धरती है बेहाल।
मुरझाई-सी तुलसियाँ, नागफनी खुशहाल॥
बीज-सिंचाई, उर्वरक, मंडी-सेठ-दलाल।
लूटे सभी किसान को, चलते शातिर चाल॥
खाद-बीज औ उर्वरक, होते महँगे रोज।
कैसे बोये खेत को, ले कर्जे का बोझ॥
शोकाकुल धरती दिखे, लिए हृदय में पीर।
भेज रही है पातियाँ, बांधो अम्बर धीर॥
व्यथित पीड़कों से हुए, ये धरती आकाश।
उत्पादन की चाह में, करते रोज विनाश॥
छिड़क दवाई रोज जो, लेंगे फसलें आप।
हरा-भरा वातावरण, जल्द बने अभिशाप॥
धरती माता क्षुब्ध है, देख स्वयं का नाश।
धुंआ ही धुंआ हुआ, भूमि से आकाश॥
सौरभ पीड़क, उर्वरक, करते भूमि त्रस्त।
अब तो जैविक राह ही, करे प्रदूषण पस्त॥
नही पराली,अब जले, अब तो लो संज्ञान।
बंद कीटनाशक करो, ये है जहर समान॥
डॉ. सत्यवान सौरभ