पारसी और गुजराती नाट्यकलाओं से प्रभावित ‘भांगवाड़ी रंगमंच’ 1892 में देशी समाज के नाटकों से स्थापित हुआ।
विनयकांत द्विवेदी ने भांगवाडी की यादें साझा करते हुए कहा,”उन दिनों नाटकों में पुरुष अभिनेता ही महिला वेश में अभिनय करते थे.” शायद ऐसा इसलिए भी होता होगा की उस ज़माने में महिलाओं को ज़्यादा आज़ादी नही दी जाती थी और पुरानी मानसिकता के लोग थिएटर में काम करना अच्छा नहीं समझते थे परन्तु पुरुष भी महिलाओं की नक़ल महिलाओं से भी बेहतर करते थे आज कल की फिल्मों और नाटकों में इस तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं जहाँ पुरुष कलाकार महिलाओं की पोषाक पहनकर महिलाओं की तरह अभिनय करते है और दर्शकों को खूब हँसाते हैं
वो बताते हैं कि हिन्दी फ़िल्मों में प्रचलित हुए कई गाने नाटकों से प्रेरित हैं,”मुग़ल-ए-आज़म का” ‘मोहे पनघट पे’ गाना रसकवि रधुनाथ ने भांगवाड़ी के नाटक छत्रसाल के लिए लिखा था.” बॉलीवुड में ऐसे गानों की तो भरमार है उदाहरण के तोर पर ‘ससुराल गेंदाफूल’ गाना भी एक लोक गीत से प्रेरित है।
भांगवाडी में नाटक का नशा इस कदर था की लोग ढलती शाम से शुरु हो कर सुबह आठ-नौ बजे तक चलते रहते थे।और भव्य सेट के बीच दर्शकों की फ़रमाइशें पूरी करने में सारी रात बीत जाती थी।
कुछ कलाकार अपने किरदारों के कारण इतने फैमस हो गए के अपने असली नाम की जगह अपने किरदारी नाम से जाने जाते थे जैसे शिवलाल कॉमिक, आनंद जी कबूतर, चिमन चकुडो, छगन रोमियो, प्राणसुख ऑडिपोलो जैसे अभिनेता अपने किरदारों के नाम से जाने जाते थे. वहीं जयशंकर ‘सुंदरी’, प्रभाकर कीर्ति-रंगलाल नायक, मा. गोरधन जैसे कलाकार स्त्री वेशभूषा की वजह से जाने गए। आज के समय भी कुछ किरदार इतने लोकप्रिय हो गए है की उनका असली नाम जानते हुए भी लोग उनके किरदार नाम को अधिक पसंद करते हैं जैसे ‘शोले का गब्बर सिंह ( अमजद खान )’ ‘दबंग का चुलबुल पांडये ( सलमान खान )’ ‘बादशाह का बादशाह ( शाहरुखखान )’ आदि।
उन दिनों महिलाओं को घर की चार दिवारी में रखा जाता था और उन्हें घर से बहार जाने की इजाज़त नही दी जाती थी इसलिए रंगमंच पर महिलाएं अपने अभिनय का जादू कम बिखेर पायीं पर जिन महिलाओं ने अभिनय की दुनिया मैं कदम रखा उनको दर्शकों ने बहुत पसंद किया। जिनमे कुछ महत्वपूर्ण नाम इस प्रकार हैं। मोतीबाई, माहेश्वरी, मनोरमा, कुसुम ठाकर, शालिनी, हंसा जैसी अभिनेत्रियां अभिनय और गाने के कारण प्रसिद्धता पा सकीं।
आज नाटक ,फिल्म या रंगमंच हो इसमें कला कम व्यवसाय ज़्यादा दिखता है। शायद पहले जैसे कद्रदान नहीं रहे जितना ज़्यादा दिखावा उतनी ज़्यादा लोकप्रियता। कला से जुड़े लोग नाटक के भाव, सत्व और माहौल को कायम रखने में कसर नहीं छोड़ते पर आज भी इस क्षेत्र में भरसक प्रयास जारी है।