Friday, October 11, 2024
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आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच

कुछ लोग आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही लडाई को व्यक्तित्वों का संघर्ष समझ रहे हैं, तो कुछ इसे राजनैतिक महत्वाकांक्षा का टकराव कह रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वो इसी तरफ इशारा करता है। लेकिन राजनीति की यही तो खास बात है कि यहां जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। पर्दे के दूसरी तरफ इस टकराव की असली वजह छिपी है, जहां शायद अभी तक किसी ने झांकने की कोशिश भी नहीं की है।
दरअसल कोई भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा या व्यक्तित्व संघर्ष कभी इस स्तर तक नहीं बढता…..एक वक्त के बाद कोई एक पक्ष दूसरे पर भारी पड़ जाता है और ऐसे संघर्ष शांत हो जाते हैं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो आडवाणी आज बीजेपी में नहीं होते। हर व्यक्ति को एक वक्त पर ये अंदाज़ा हो जाता है कि उसकी ताकत पार्टी के दूसरे नेता से ज्यादा है या कम। और उसी के आधार पर हमेशा राजनैतिक समझौते हो जाया करते हैं।
कुछ लोगों को लगता है कि ये संघर्ष मुद्दों को लेकर है पद को लेकर नहीं, जैसा प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव भी लगातार दावा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं लगता। अगर पद महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि खुद को पीएसी से बाहर निकालने के सवाल पर खुद प्रशांत और योगेन्द्र ने अपने ही पक्ष में वोट किया? अगर लडाई मुद्दों की ही है तो क्या अच्छा नहीं होता कि ये दोनों खुद को वोटिंग से बाहर रखते और बाकी सदस्यों को ये तय करने का अधिकार देते कि उन्हें पीएसी में रहना चाहिये या नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जो कुछ चल रहा है उसमें पद का भी काफी महत्व है।
फिर ऐसा क्या है कि आम आदमी पार्टी में छिडा विवाद ख़त्म ही नहीं हो रहा। क्या योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को ये अंदाज़ा नहीं कि केजरीवाल पार्टी के भीतर और बाहर उनसे कहीं ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं? और अगर उन्हें अंदाज़ा है तो फिर किस दम पर वो इस संघर्ष में आगे बढ़ते जा रहे हैं? आखिर क्यों केजरीवाल इस लडाई में अपनी छवि तक दांव पर लगाने को तैयार हैं?
आइये पर्दे के उस पार चलते हैं और पहले तमाम चरित्रों से मिलते हैं।
योगेन्द्र यादव – राजनीति में सिस्टम बदलने नहीं आये क्योंकि लम्बे वक्त तक खुद इस सिस्टम का हिस्सा रह चुके हैं। कुछ लोग इन्हें कांग्रेस दिग्गजों का राजनैतिक सलाहकार भी मानते रहे हैं। अपने दम पर पार्टी नहीं चला सकते ये तय है। लेकिन विचारों और व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति में केजरीवाल को छोड दें, तो पार्टी में शायद ही कोई इनका मुकाबला कर पाए। पार्टी के जो नेता इन्हें दिन रात कोस रहे हैं वो अपने घर पर अपनी पत्नी से कुछ इस अंदाज़ में गालियां भी खा रहे हैं – “योगेन्द्र जी तो इतने भले आदमी लगते हैं आप लोगों ने ही कोई बदतमीजी की होगी वर्ना बात इतनी न बढती”। योगेन्द्र यादव राजनैतिक व्यवहार और चालबाज़ियों में माहिर हैं। पार्टी के भीतर और कार्यकर्ताओं में योगेन्द्र यादव की खास पकड़ नहीं है इसलिए अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए शुरु से ही प्रशांत भूषण को अपने साथ मिला लिया। अब हर बार कंधा प्रशांत भूषण का और चाल योगेन्द्र की होती है।
प्रशांत भूषण – भ्रष्ट सिस्टम में बदलाव के लिए शरु से लड़ते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का एक बड़ा चेहरा हैं और पार्टी से अलग भी अपनी साख रखते हैं। अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी से पहले भी प्रशांत भूषण सिस्टम के खिलाफ कानूनी लड़ाई के लिए जाने जाते रहे हैं। कोई ख़ास राजनैतिक समझ नहीं है इसलिए योगेन्द्र यादव से खूब पट रही है। पार्टी में रहने या अलग होने से इन्हें व्यक्तिगत तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पार्टी में ज्यादातर कार्यकर्ता इनके काम से प्रभावित हैं और मानते हैं कि इनके जाने से पार्टी को नुकसान होगा।
शांतिभूषण – आम आदमी पार्टी की इस पूरी महाभारत में धृतराष्ट्र की भूमिका में हैं। क्योंकि इनको बेटे का मोह दिखाकर जब भी इनके कान भरे गये। इन्होंने बिना पार्टी का अच्छा बुरा सोचे, खुलेआम विद्रोह का एलान कर दिया। (केवल उदाहरण देने के लिए शांतिभूषण को धृतराष्ट्र की भूमिका में कहा है….प्रशांत जी को दुर्योधन समझना या कहना बदतमीज़ी होगा।)
मयंक गांधी– महाराष्ट्र में पार्टी का चेहरा हैं लेकिन कोई लोकप्रिय नेता नहीं हैं। इस पूरे विवाद में हाल फिलहाल ही शामिल हुए हैं क्योंकि इन्हें लगने लगा है कि अगर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी की रणनीति तय करने की भूमिका में नहीं रहे तो पार्टी अगले 5 साल और शायद उसके आगे भी महाराष्ट्र में चुनाव नहीं लडेगी। इससे इनके राजनैतिक भविष्य पर विराम लग रहा है।
अरविंद केजरीवाल – आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा। अपने दम पर यहां तक का रास्ता तय किया और अब भी महत्वपूर्ण फैसले अपने दिमाग से करने में यकीन करते हैं। जो जैसा है उसे उसी के तौर तरीके से जवाब देने की आदत है फिर चाहे उसके लिए कुछ देर पटरी से ही क्यों न उतरना पड़े। राजनैतिक समझ के मामले में इस वक्त पार्टी में इनका कोई सानी नहीं है। दिल्ली में रणनीति, कार्यानवयन और फैसले लेने का पूरा श्रेय केजरीवाल को जाता है। मन में बैठ चुका है कि योगेन्द्र यादव पीठ में छुरा घोंप रहे हैं। प्रशांत भूषण को पसंद करते हैं लेकिन उनके लिए योगेन्द्र और शांतिभूषण को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। लक्ष्य हासिल करने के लिए राजनैतिक पैतरों से भी परहेज़ नहीं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं। पार्टी के भीतर की राजनीति में माहिर नहीं बन पाए हैं।
विवाद की असली तस्वीर –
योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के बराबर का कद चाहते हैं और ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल को बेरोकटोक कोई भी फैसला लेने का अधिकार पार्टी ने दिया है….वैसा ही अधिकार हरियाणा की राजनीति में खुद के लिए चाहते हैं। लेकिन केजरीवाल के पुराने साथी और कट्टर समर्थक नवीन जयहिंद के हरियाणा की राजनीति में रहते ये कतई मुमकिन नहीं है। इसलिए योगेन्द्र यादव नवीन जयहिंद को पार्टी से बाहर निकलवाने की कोशिश भी कर चुके हैं लेकिन केजरीवाल इसके लिए कतई राज़ी नहीं है। इसे योगेन्द्र हरियाणा की राजनीति में केजरीवाल का हस्तक्षेप मानते हैं।
आम आदमी पार्टी बनने के शुरुआती दिनों में ही योगेन्द्र यादव ये समझ गये थे कि केजरीवाल प्रशांत भूषण को कुछ ज्यादा ही अहमियत देते हैं और प्रशांत ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो ठसक के साथ अपनी बात कह कर भी केजरीवाल को कभी नहीं खटकते। नवीन जयहिंद को निकालने के मुद्दे पर जब पंजाब में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान वोटिंग करवाने पर योगेन्द्र अकेले पड़ गये, तो उन्हें ये समझ आ गया कि ऐसी स्थिति में पार्टी में लंबी पारी खेलना उनके लिए मुश्किल हो सकता है। योगेन्द्र यादव ने अपनी राजनैतिक चतुराई का इस्तेमाल कर धीरे धीरे प्रशांत भूषण को अपना बेहद करीबी बना लिया ताकि वक्त पड़ने पर उन्हें वीटो पावर की तरह इस्तेमाल किया जा सके। पिछले एक साल से ये दोनों दो शख्स हैं लेकिन पार्टी के भीतर हमेशा एक आवाज़ में बोलते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को मेल या चिट्ठी भी एक ही जाती है जिसपर दोनों का नाम होता है।

योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की साझा कोशिशों के बावजूद पार्टी कार्यकारिणी में ये दोनों किसी मुद्दे पर कभी भी केजरीवाल को हराकर अपनी बात नहीं मनवा पाए। क्योंकि पार्टी में कोई भी केजरीवाल के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है। पार्टी का पूरा सिस्टम (चूंकि वो वॉलंटियर्स से चलता है) भी केजरीवाल के ही इशारे पर काम करता है। इसलिए तय हुआ कि जिन आदर्शों की दुहाई देकर पार्टी बनी थी और तमाम समर्थक जुटे थे उन्हीं आदर्शों को आगे कर ये लड़ाई लड़ी जाए। लोकसभा चुनाव में ज़बरदस्त पराजय के बाद केजरीवाल ने फैसले लेने की पूरी ताकत अपने हाथों में ले ली। और योगेन्द्र यादव ने आदर्शों की लिस्ट पर सवाल जवाब कर केजरीवाल की इस ताकत को चुनौती देना शुरु कर दिया।

पासा सही पड़ा….वॉलंटियर्स उन सभी मद्दों के साथ हैं जो आदर्श हैं। मसलन खर्च का ब्यौरा, चंदे की जांच, आदर्श उम्मीदवारों का चयन इत्यादि इत्यादि। अब केजरीवाल कुछ भी कहें लेकिन कार्यकर्ताओं को तो पार्टी के भीतर आदर्श व्यवस्था ही चाहिये। यानि इस मुद्दे को सहारा बनाकर पहली बार पार्टी के भीतर केजरीवाल की स्थिति को चुनौती देना मुमकिन हो पाया है। अगर केजरीवाल इस मुद्दे के बहाने ही सही, योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले में पार्टी में अल्पमत में आ जाएं तो पर्दे के पीछे के कई सवाल हल करने की ताकत योगेन्द्र कैंप के हाथ में आ जाएगी। समझौते के रुप में हरियाणा की दावेदारी, पार्टी में मजबूत स्थिति और दिल्ली के बाहर चुनाव लडने जैसे कई मुद्दों पर केजरीवाल की राय के खिलाफ भी अपनी बात मनवा पाना मुमकिन हो जाएगा। ‘कैंप’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि आदर्शों की इस लड़ाई के नाम पर योगेन्द्र आम आदमी पार्टी में अपने पक्ष में एक कैंप बनाने में कामयाब रहे हैं। इस कैंप को कार्यकर्ताओं का भी काफी समर्थन मिल रहा है। लेकिन यहां भी पर्दे के पीछे कैंप बनने का कारण आदर्श नहीं राजनीति ही है।

केजरीवाल आम आदमी पार्टी की आगे की राजनीति की दिशा और कार्यक्रम तय कर चुके हैं। केजरीवाल नेपोलियन नहीं बनना चाहते जिसे जीतने के लिए हर राज्य में जाना पड़े। केजरीवाल का प्लान है कि बिना दोबारा चुनावी दलदल में घुसे दिल्ली में ऐसा काम करके दिखाया जाए कि कहीं जाना न पड़े और देश भर में लोग दिल्ली का काम देखकर वोट दे दें। इसी प्लान को लेकर पर्दे के पीछे से पूरा कैंप खडा हो गया है। चुनाव नहीं लड़ेंगे तो महाराष्ट्र में मयंक गांधी की राजनीति का क्या होगा। हरियाणा में योगेन्द्र यादव का क्या भविष्य होगा। हिमाचल में तो प्रशांत पिछले विधानसभा चुनाव ही लड़वाना चाह रहे थे। देश भर के पार्टी नेताओं को दिल्ली के इस फरमान के खिलाफ खड़ा करना ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि चुनाव नहीं लड़ने से आखिर सवाल तो उन सभी राजनोताओं के अपने राजनैतिक भविष्य पर भी खड़ा हो गया है।

28 मार्च को आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक है। इस परिषद में करीब 425 सदस्य हैं। लेकिन दिल्ली के सदस्यों की संख्या इसमें 50 से कम या उसके आसपास ही है। ऐसी स्थिति में आदर्शों को पर्दे के आगे रखकर और राजनीति को पर्दे के पीछे रख दिया जाए तो बहुमत को केजरीवाल के खिलाफ बनाया जा सकता है। बस इसी दम पर पूरा खेल चल रहा है।

खेल रचने वाले ये बखूबी समझते हैं कि केजरीवाल ज़िद्दी इंसान है….जो सोच लिया वो सोच लिया। दिल्ली में काम करके ही देश में वोट पाने का फार्मूला किसी हाल में नहीं बदलेगा (पंजाब इस पूरी बहस से अलग है वहां पार्टी चुनाव लडेगी, इसलिए पंजाब यूनिट भी केजरीवाल के पक्ष में नज़र आ रही है।)। ऐसी हालत में यदि राष्ट्रीय परिषद में योगेन्द्र और प्रशांत को निकालने के मुद्दे पर केजरीवाल अल्पमत में आ गए तो नाराज़ नेताजी सब छोड़-छाड बस दिल्ली में रम जाएंगे। और पार्टी का कामकाज पूरी तरह विरोधी कैंप के हाथों में चला जाएगा। जो नेता जिस राज्य में चुनाव लड़ना चाहते हैं लड़ पाएंगे। हारें या जीतें ये तय है कि केजरीवाल प्रचार में नहीं जाएंगे।

पर्दा गिरता है……

आम आदमी पार्टी के भीतर आदर्शों पर बने रहने की लड़ाई चल रही है। अगर चंदे की जांच करवा दी जाए, आरोपित उम्मीदवार जो अब विधायक हैं उनका इस्तीफा दिला दिया जाए, खर्च का पूरा हिसाब दे दिया जाए तो लडाई खत्म हो जाएगी

फिर बेशक पार्टी की राज्य इकाइयों को चुनाव लडने का फैसला खुद लेने का अधिकार मिले या न मिले, योगेन्द्र यादव को हरियाणा का निर्विरोध नेता माना जाए या न माना जाए, पार्टी संयोजक बदला जाए या न बदला जाए…….

मुस्कुराइए मत, यही सच है….

 अनुराग ढांडा

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और वर्तमान में ज़ी न्यूज़ से जुड़े है

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6 COMMENTS

  1. सटीक और शालीन विश्लेषण किया है सर —
    Arun panddy

  2. I wanted to believe this article as an eager AAP and AK fan, but unfortunately, it haS several glaring logical inconsistencies that do not make any sense to an independent AAP supporter.

    (Maaf kijiye, south Indian hoon, Hindi acchi likh nahi sakta.)

    Examples:

    1/ Prashant Bhushan, one of India’s most respected lawyers and premier anti-corruption crusader, is portrayed as someone with no personal judgment or even intelligence on these issues, and only as a blind supporter of Yadav’s cunning! This goes completely against PB’s long and illustrious career record of strong support to whoever / whatever is ethical and right, despite howsoever powerful the adversary is.

    In the current AAP fight, since PB is on the side of YY, it makes the most sense that it is AK and people surrounding him who are in the wrong.

    2/ In fact, even the letter from Sisodia and friends actually almost entirely blame Prashant & Shanti Bhushan and have only written a single, minor complaint against Yadav. It would seem even the AK/Sisodia camp is not able to agree with this blogpost, much less the PB/YY camp.

    3/ Besides vague references to YY being politically cunning, ambitious, a smooth talker and maybe even a Congress agent, no tangible evidence is provided to the independent AAP supporter to show he is any of those things and intent on destroying AAP!

    4/ YY/PB have released a detailed letter and e-mails from last several months that better explain the real reasons for this conflict – which seem to be PB/YY’s insistence on remaining true to AAP’s founding ideals, whereas AK wanted to take the “pragmatic” route by compromising on those ideals. It is no wonder therefore that the vast majority of independent AAP volunteers / supporters are coming out strongly in favour of YY/PB’s position.

    The AK camp has come out with a lot of allegations. Unfortunately, they have not been able to even minimally respond to the carefully and respectfully written letter by YY/PB, who raise extremely significant issues, that I am sure have the support of >90% of independent AAP volunteers and donors.

    5/ I still have some hope that since AK is back now, he will meet with PB & YY and try to resolve their personal issues and bring back AAP’s focus on fighting corruption and the BJP/Congress. AK & AAP will also need to publically respond to issues raised by YY/PB and institute mechanisms so that the party is not hijacked by similar interests in the future.

    6/ I will personally also like for a vote to be brought up at the National Executive meet to expel current members who have played a major role in precipitating this issue, including Sanjay Singh, Ashutosh, Ashish Khetan, Ankit Lal and some others.

    Thank you for reading …

  3. Aaklan shi hai ..leking or bhi wajah hai vivaado Ki …jis shalin trike se lekh likha hai wah bh Tarif ke kabil hai …

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