देश

साड़ियां बनीं भारतीय परंपराओं का प्रतिक

By अपनी पत्रिका

April 16, 2021

प्रियंका आनंद

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औरंगाबाद की पैठणी साडि – औरंगाबाद की पैठणी साडि को साडियों की रानी कहा जाता है। दरसल पैठणी औरंगाबाद के एक शहर पैठण से उतपन्न हुआ है। ये हाथ से बुनी हुई फाइन सिल्क है जो सबसे उत्तम प्रकार की साडि में से माना जाता है। इसके किनारे और पल्लु पर अपनी खास डिजाइन जैसै चौकोर और तिरछे आकार वाले तोता, मैना, कमल, हंस, नारियल, मोर आदि होते है। समय और पहनावे के चलते इसके रंग और पैट्रन में अंतर आ गया है लेकिन आज भी इसकी शान और म्रयार्दा बरकरार है।

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बादंनी साडि – गुजरात से लेकर राजिस्थान और उत्तर प्रदेश के इलाको में पसंद की जाने वाली बादंनी साडि का नाम बंधन शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ होता है बंधन। इस खास प्रिट की शुरुआत गुजरात में खत्रियों ने की थी। इसकी डिजाइनिंग सुती, जॉज्रट और शिफॉन के कपडे पर किया जाता है। बांधनी को काफी लोग सालों की मेहनत से तैयार करते है। इसका खास प्रिंट चुनरी, औठनी और लहंगा में काफी पसंद किया जाता है। शादियों में दुल्हन इस प्रकार के लहंगे या साडि को काफी पसंद करती है।

मुंगा साडि – असम मे बनी मुंगा साडि सिल्क कि साडि जितनी भारत में पसंद की जाती है उतनी ही विदेशे में भी सराही जाती है। इसे बनाने के लिए जिस रेश्मि किडे का इस्तेमाल किया जाता है उसे मारा नही जाता। उस किडे का वैज्ञानिक नाम Antheraea Assamensis है। इसे जितने पुराने किडे से बनाया जाता है इसकी चमक उतनी ही ज्यादा होती है। इन साडियों का रख रखाव भी काफी आसान होता है और इनको धोने में भी कोइ परेशानी नही होती। इसे हाथ से बनाया जाता है इसलिए इसको बनाने में 15 से 45 दिनों का समय लगता है।

बनारसी साडि

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लहरीया – राजस्थान की एक पारंपरिक टाई एंड डाई तकनीक है। इतिहासकारों की माने तो लहरीया का उल्लेख 15वीं सदी में मिलता है। सोलहवीं सदी में अवधी के कवि जायसी ने अपने काव्य में लहरिया को जगह दी थी। इसका इतिहास राजपुताना में राजाओं की पगडि पर किया जाता है। लहरीया सिर्फ एक कपडे पर उतारा डिजाइन या स्टाइल नही है बल्कि यह श्रद्धा, आस्था, प्रमे एवम खुशनुमा माहौल का भी प्रतीक माना जाता है।

पंजाब की फुलकारी – पंजाब का जिक्र चले और फुलकारी का नाम ना आए एसा हो नही सकता क्योंकि फुलकारी वर्क पंजाब का हिस्सा है। जिसकी शुरुआत बच्चे के जन्म से लेकर, शादियों और तीज त्यौहारों सभी प्रकार के कामों में की जाती है। मान्यतों के अनुसार फुलकारी की शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई थी और इसका अर्थ होता है फुलों की कारीगरी। पटियाला सलवार सुट और उनकी कारीगरी इस कला के बिना अधुरी है। यह ना केवल साडियों में अपितु जुती, दुपट्टे और भी अन्य सौन्द्रयीकरण चीजों में भी पाया जाता है।

नवाबों के शहर लखनऊ की चिकरकारी ने भी काफी लोकप्रियता हासिल करी है। मान्यताओं के मुताबिक चिकनकारी की शुरुआत नवाबों के समय में ही हो गई थी और तब से लेकर अब तक चली आ रही है। साडियों पर यह कला बहुत ही निखर कर आती है। चाहे बात एश्वर्या की हो या किसी और अभिनेत्री की या फिर किसी साधारण महिला की, चिकनकारी कला भारत में काफी लोकप्रिय है। अलग अलग रंगों की साडियों पर सफेद रंग की चिकनकारी बेहद सुन्दर लगती है और उसने काफी सराहना भी हासिल करी है।

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