इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता समाप्त करने, जेल भेजे जाने के खिलाफ थे मधुलिमये

प्रोफेसर राजकुमार जैन

नीति के मामले में मधुलिमये किसी को बख्शते नहीं थे। अटल बिहारी वाजपेयी जी विदेश मंत्री रह चुके थे, विदेश नीति पर उन्होंने कोई लेख इलेस्ट्रेटेड वीकली में लिखा, मधु जी ने उसके विरोध में लेख लिखा। उनके लेख का प्रतिवाद हुआ। उसके उत्तर में मधु जी ने कड़ी भाषा का प्रयोग करते हुए यहाँ तक लिख दिया कि मैं मानता हूं कि आप हिंदी के उच्च कोटि के वक्ता हैं। आप चंपक, लोटपोट जैसी पत्रिकाओं के ज्ञान के दम पर कृपाकर विदेश नीति जैसे गंभीर विषय पर राय न व्यक्त करें तो बेहतर होगा। मधु जी के उस लेख के बाद, दि टेलीग्राफ में एक डिबेट शुरू हो गई, पहले एक-दो बार आडवाणी जी ने, बाद में जनसंघ के बुद्धिजीवी आर.के. मल्कानी ने उत्तर लिखे, परंतु आखिर में सब ठंडे पड़ गए।

मेरा अटल जी के घर पर व्यक्तिगत रूप से आना-जाना था। कई बार मधु जी राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर गुप्त पत्र लिखकर बंद लिफाफे में मेरे हाथ भिजवाते थे। प्रधानमंत्री नरसिंह राव भी मधु जी के मुरीद थे, मधु जी की सलाह अकसर वे लेते थे। मधु जी के हृदय की विशालता तथा राजनीतिक प्रतिशोध न लेने का एक सबसे बड़ा उदाहरण श्रीमती इंदिरा गांधी के संदर्भ में देखने को मिलता है।
मधु जी ने मारुति कार का मामला संसद में विशेषाधिकार हनन के रूप में उठाया था, क्योंकि प्रधानमंत्री के कार्यालय ने उसमें अड़ंगा लगाते हुए सूचना नहीं दी। जनता पार्टी की सरकार बनने पर श्रीमती इंदिरा गांधी पर प्रिविलेज का मामला बनाकर इंदिरा जी को सजा देने पर जनता पार्टी के नेता तुले हुए थे तब तक इंदिरा जी चिकमगलूर से लोकसभा का उपचुनाव जीतकर संसद में आ गई थीं। इंदिरा जी ने मधु जी को कांग्रेस के सादिक अली की मार्फत कहलवाया कि मधु जी जो चाहते हैं वह लिखकर मुझे दे दें वह मैं संसद में पढ़ दूंगी। मधु जी का कहना था कि यदि श्रीमती गांधी अपनी गलती कबूल कर संसद से माफी मांग लेती हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। परंतु सरकार नहीं मानी, उन्हें जेल भेज दिया। उस शाम मधु जी बहुत उदास थे, मैंने एक संगीत सभा में चलने को कहा, मधु जी ने मना कर दिया। मैंने फिर इसरार किया तो वे मेरे पर भड़क उठे कि “तुम नालायकों को अगर अक्ल नहीं है तो मरो।” मैं बात को समझ नहीं पाया, दरअसल वह गुस्सा इंदिरा जी के कांड को लेकर था। वो दुखी थे कि जनता पार्टी बदला लेने पर तुली है।

मधु जी ने अपने जीवन में उसूलों पर चलने के कारण बाहरवालों से ज्यादा अपनों से भी जख्म खाए हैं। जनता पार्टी पर, जनसंघ, आर.एस.एस. के बढ़ते खतरे को देखकर मधु जी ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया। जनसंघी तथा आर.एस.एस. वाले तो मधु जी पर टूट पड़े थे, अपनों ने भी गद्दी का सुख छिन जाने के कारण पार्टीतोड़क, रूस का दलाल, सनकी, न जाने कैसे-कैसे आरोप मधु जी पर लगाए। मैंने अपने जीवन में उस समय मधु जी को घिरा हुआ पाया जब अपने साथ छोड़ रहे थे, बाहर पूरी ताकत से हमला कर रहे थे।

मधु जी की एक विशेष खासियत मैंने देखी है कि वे कभी भी किसी की पीठ पीछे निंदा नहीं सुनते थे। डांट देते थे, इसके भी कई किस्से हैं। मधु जी पार्टी के अखिल भारतीय सैक्रेटरी थे, राज्यसभा के लिए नामों की सिफारिश पर बात हो रही थी। मधु जी ने सुरेंद्र मोहन जी का नाम राज्यसभा के लिए प्रस्तावित किया। वहीं पर एक सुरेंद्र मोहन विरोधी बैठे थे उन्होंने उनका विरोध किया, बस फिर क्या था, मधु जी उस पर बरस पड़े, तुम सब लोग एम.एल.ए., मंत्री, संसद सदस्य बन गए। सुरेंद्र मोहन के नाम पर तुम्हें बुरा लग रहा है। सारी जिंदगी उस आदमी ने सोशलिस्ट पार्टी की टेबल पर गुजारी है। 19 महीने जेल काटकर आया है।
मधु जी अपने साथियों, अनुयायियों के राजनीतिक भविष्य के लिए सदैव पर्दे के पीछे मदद करते थे। इसके अनेक उदाहरण मेरे जहन में हैं। अपने पुराने साथी, सदाशिव बगाइतर, सत्यनारायण रेड्डी, लाडली मोहन निगम जैसे सोशलिस्ट आंदोलन में अपना जीवन खपाने वालों को राज्यसभा भिजवाने कार्य किया है।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने कांग्रेस छोड़कर ‘जन मोर्चा’ की स्थापना कर ली थी, ईमानदारी का बिल्ला उस पर चिपका हुआ था। एक रात मेरे मित्र डॉ. हरीश खन्ना (भूतपूर्व एम.एल.ए.) मेरे घर आए और कहा कि मधु जी ने संदेश भिजवाया है कि कल 2 अक्टूबर को आपको सुबह 8 बजे गांधी समाधि राजघाट पर पहुंचना है। वहां पर वी.पी. सिंह जी आएंगे, वहीं पर वो ‘जन मोर्चे’ के राज्यों के संयोजकों के नामों की घोषणा करेंगे, आपको दिल्ली का संयोजक बनाने का फैसला हुआ है। मैं भी वी.पी. सिंह को पसंद नहीं करता था, मैंने हरीश खन्ना से कहा, अभी रात में मधु जी के यहां जाओ तथा बता दो ताकि शर्मिंदगी न उठानी पड़े।
अपने लिए सिद्धांत के बड़े पक्के थे, लोकसभा का चुनाव हारने के बाद, राज्यसभा में भेजने का उत्तर प्रदेश, बिहार से पार्टी नेताओं ने अनुरोध किया, परंतु वे तैयार नहीं हुए। मेरे सामने की बात है कि एक दिन चौ. देवीलाल जी प्रस्ताव लेकर आए कि मधु जी आप सोनीपत से चुनाव लड़ लें, जीत पक्की है, परंतु मधु जी को यह स्वीकार नहीं था। जब आपातकाल का सहारा लेकर लोकसभा की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी गई तो उन्होंने उसका विरोध किया तथा संसद सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। सैद्धांतिक आधार पर उन्होंने कभी भी संसद सदस्य होने की पेंशन स्वीकार नहीं की।

मधु जी के यहां किसी भी इंसान की ईमानदारी, सादगी की बड़ी कद्र थी। घोर विरोधी की अच्छी बातों की भी वो तारीफ करते थे। जनसंघ, आर.एस.एस. के ईमानदार लोगों का मधु जी से लगाव रहता था। एक दिन मैंने देखा कि मध्यप्रदेश के आर.एस.एस. के बड़े नेता कुशाभाऊ ठाकरे मधुजी के यहां एक दिन ठहरे थे, वो अपनी धोती धोकर गुसलखाने से निकल रहे थे। उनकी सादगी की तारीफ मधु जी कर रहे थे। मधु जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जो कोई भी उनके संपर्क में आता था वो उऩका बनकर रह जाता था। ऊपर से मधु जी जितने कठोर नजर आते थे अंदर से वो उतने ही निर्मल, विनम्र, सहज ममतामय, अपनेपन से भरे थे।

मधु जी के जीवन में दो व्यक्तियों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है, एक जवाहरलाल म्यूजियम लायब्रेरी के डायरेक्टर मरहूम डॉ. हरिदेव शर्मा जी तथा डॉ. राममनोहर लोहिया रचनावली के संपादक डॉ. मस्तराम कपूर।

डॉ. लोहिया के बाद मधु जी ने ही सबसे अधिक विभिन्न विषयों पर मौलिक लेखन किया है, ज्ञात रूप से 129 किताबों की लिस्ट जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल लायब्रेरी में उपलब्ध है। मधु जी की ज्यादातर पुस्तकों में इन दोनों विद्वानों का हृदय से धन्यवाद मधु जी ने किया है।

कई बार मजाक में मधु जी मुझसे कहते थे कि तुम किसी काम के नहीं हो, एक काम तुम्हें बताया था वह तुमने नहीं किया। तो मेरे पास भी तुरुप का एक पत्ता रहता था जिसको इस्तेमाल मैं भी कर देता था। मैं कहता था कि दो हीरे मैंने ही आपको लाकर दिए हैं।
मधु जी से डॉ. मस्तराम जी का परिचय मैंने ही करवाया था। वो दिल्ली विधानसभा में पी.आर.ओ. के पद पर कार्यरत थे। उन्होंने एक बार दिल्ली की सरकारी पत्रिका में डॉ. लोहिया पर एक लेख लिखा, मेरा घमंड जगा कि ये कौन व्यक्ति है जिसे मैं नहीं जानता। परिचय हुआ। मधु जी को एक हिंदी टाइपिस्ट की जरूरत थी, मैंने उऩसे जिक्र किया, उन्होंने सचिवालय के एक टाइपिस्ट को तैयार किया तो मैंने कहा कि आप भी मधु जी के घऱ चलिए। कपूर साहब मेरे साथ मधु जी से मिलने पंडारा रोड के घर गए। वो मुलाकात अटूट बंधन में बँध गई।
डॉ. हरिदेव शर्मा डॉ. लोहिया के निजी सचिव रह चुके थे। कट्टर लोहियावादी थे। आज जितना भी समाजवादी साहित्य उपलब्ध है यह हरदेव जी की मेहनत का फल है। जवाहरलाल नेहरू म्यूजियम एवं लायब्रेरी के डायरेक्टर रहते हुए उन्होंने तमाम उपलब्ध समाजवादी साहित्य को सालों-साल ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़ कर इकट्ठा किया। राजनारायण जी से उनकी पटती थी। मधु जी को वे रूखे स्वभाव का मानते थे। मेरे को वे बेहद पसंद करते थे। मैं और वे, दोनों अलग-अलग समय में दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. की कक्षा में मॉडर्न हिस्ट्री के प्रो. रमा मित्रा के विद्यार्थी रह चुके थे। मैं अक्सर उनके यहां जाता था। पंजाबी में वो पुराने रोचक सोशलिस्ट किस्से सुनाते थे। दिल्ली में मधु जी की पहली पुस्तक पोलिटिक्स आफ्टर फ्रीडम डॉ. एन.सी. मेहरोत्रा संपादित करके प्रकाशित कर रहे थे। डॉ. मेहरोत्रा हरिदेव जी से मदद ले रहे थे। पुस्तक तैयार होने पर पुस्तक के विमोचन समारोह में मैं स्वयं उनको निमंत्रण-पत्र देने त्रिमूर्ति भवन गया था। परंतु वे सीट पर नहीं थे, उनकी सेक्रेटरी उषा प्रसाद को पत्र देकर मैं आ गया था।
समारोह में हरिदेव जी नहीं आए। मधु जी ने मुझसे पूछा कि हरिदेव जी दिखाई नहीं दिए। अगले दिन मधु जी ने कहा, चलो हरिदेव से मिलकर आते हैं, वो क्यों नहीं आए! मैं और मधु जी हरिदेव से मिलने लायब्रेरी गए। मधु जी ने पूछा कि कल आप क्यों नहीं आए, हरिदेव जी ने अपने स्वभाव के अनुसार जवाब दिया, जब मुझे बुलाया ही नहीं गया तो मैं क्यों आता। मधु जी ने मेरी तरफ देखा, मैंने कहा कि निमंत्रण-पत्र तो मैं खुद देकर गया था, इनकी सेक्रेटरी को। डॉ. हरिदेव ने सेक्रेटरी को बुलवाया और पूछा, उन्होंने कहा कि ये दे तो गए थे, मैं आपको बताना भूल गई थी। उसी शाम हरिदेव जी हमारे साथ मधु जी के घर गए और सदा के लिए मधु जी के होकर रह गए।

मैंने मधु जी को बहुत नजदीक से देखा है, विद्वत्ता, ईमानदारी, सादगी, संघर्ष में आकाश के ध्रुव तारा थे। जब पहली बार उन्होंने मुझे मेरे टू-व्हीलर स्कूटर पर पार्लियामेंट चलने को कहा तो घबराहट हो गई। मधु जी स्कूटर के पीछे बैठे तो हाथ में कंपन होने लगा कि हिंदुस्तान के समाजवादी आंदोलन की जमा-पूंजी स्कूटर के पीछे बैठी है। संभल के चलो।

राजनीति से संन्यास लेने के बाद मधु जी का घर एक प्रकार का गुरुकुल बन गया था। विभिन्न पार्टियों के नेता, कार्यकर्ता, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, गवर्नर, एंबेसडर, एम.पी., एम.एल.ए., कैबिनेट स्तर के ओहदेदार, सरकारी अफसर, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार सलाह लेने, न समझ आनेवाली गुत्थियों को सुलझाने का जमावड़ा सायंकाल मधुजी के घर पर अकसर देखा जा सकता था।

बरसों बरस, उनके घर आनेवालों के लिए चाय, कॉफी बनाने, बर्तन धोने से लेकर लिखाई-पढ़ाई के काम में पोस्टमैनी कभी लायब्रेरी में जाकर संदर्भ ढ़ूंढ़ना, अखबारों की कतरन इकट्ठा करना, कभी चुनाव क्षेत्र से मदद के लिए आनेवाले पत्रों का जवाब। देशभर में दौरों के दौरान उड़ती हुई धूल को फांकने की मजदूरी की कीमत उनके हाथ से बनाई खिचड़ी, झिड़की, संगीत की महफिल की संगति से वसूल लेता था।

पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने बहुत ही सारगर्भित रूप से अपनी आत्मकथा में मधु जी के बारे में लिखा है –
“I had know him in parliament over the years when he was a very vocal member of opposition. He is a man of integrity, and no matter which side he is on. I cannot imagine his doing a mean or wunworthy act. He would only act on deep conviction and not for any person benefit.”

अनेक जनसंघर्षों में जेल यातनाओं, पुलिस की मार सहकर उनका शरीर अस्वस्थ जरूर रहता था, परंतु मधु जी ने त्याग, मितव्ययिता की अपनी जिंदगी को गर्व और सहजता से लिया।
समाजवादी आंदोलन के इस पुरोधा का 8 जनवरी 1995 को निधन हो गया। मधु जी के अनन्य निकटतम लाडली मोहन निगम के एक वाक्य में मधु जी के जीवन का सार इस प्रकार है – “उन्होंने अपने जीवन में न्यूनतम लिया अधिकतम दिया और श्रेष्ठतम जिया।”

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